Friday, 17 April 2015

समीक्षा : छुटपन के दिन (बाल कहानी संग्रह) लेखक - तुषार उप्रेती


बच्‍चों के लिए लिखना बच्‍चों का खेल नहीं। बड़ों के लिए लिखते समय लेखक जैसी चाहे वैसी भूमिका अपना सकता है; प्रेरक, मार्गदर्शक, दोस्‍त, उपदेशक और यहां तक कि तटस्‍थ रचनाकार की भी। लेकिन अगर आप बच्‍चों के लिए इस उद्देश्‍य के साथ कुछ लिखना चाहते हैं कि वो उनके जीवन में सार्थक बदलाव लाए, उनके व्‍यक्तित्‍व और चरित्र को तराशे तो आपको एक माँ की मानिंद पहले उनकी मनोभूमि में प्रवेश करना होगा, फिर खुद भी एक बच्‍चा बनकर उनसे दोस्‍ती गांठनी होगी, तभी आप अपनी कह पाएंगे और वे सुन पाएंगे।

लेखक तुषार उप्रेती ने अपने प्रथम बाल कहानी संग्रह छुटपन के दिन में भाषा, विषय, पात्र सभी स्‍तरों पर बच्‍चों की दुनिया में जाकर उनसे संवाद स्‍थापित करने का कुछ ऐसा ही सफल प्रयास किया है। पांच से दस वर्ष तक के बच्‍चों को लक्षित करके लिखे गए इस संग्रह में कुल पांच कहानियां हैं जिनमें बच्‍चों को साफ-सफाई, पोषक खान-पान, सामान्‍य ज्ञान, पर्यावरण जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों के बारे में बताया गया है। पूरी किताब का उद्देश्‍य बच्‍चों में अच्‍छी आदतों का विकास करना है, लेकिन अच्‍छी बात यह है कि ऐसा मनोरंजक मिसालें देकर किया गया है, कोरी समझाइश से नहीं।

कहानियां चाहे बच्‍चों के लिए हों या वयस्‍कों के लिए, जिज्ञासा हमेशा उनका प्राणतत्त्व रहा है। आखिर, वही पाठक को बांधती है, इस कसौटी पर भी इस कहानी संग्रह की कथाएं खरी उतरती हैं। आकर्षक चित्रों से युक्‍त सभी कहानियां विभिन्‍न पात्रों के बीच संवादों के सहारे शक्‍ल लेती हैं और एक मुकम्‍मल अंत की ओर बढ़ती हैं। इन कहानियों की एक खास बात यह भी है कि इन्‍हें पढ़ने के साथ-साथ कहने-सुनाने की शैली में लिखा गया है। अगर आप हाथ में किताब लेकर भी किसी कहानी का पाठ कर जाएं तो बच्‍चे भाषा की जटिलता के कारण भावार्थ ग्रहण करने में कहीं अटकेंगे नहीं। विभिन्‍न कार्यशालाओं में इसे आज़माया भी जा चुका है। आखिर हमारे देश में श्रुतियों की परंपरा रही है जहां सिर्फ वाचन-श्रवण के माध्‍यम से ही महान् ज्ञान को आत्‍मसात् किया जाता रहा है।  

अंत में, यह किताब उन सभी दादी-नानी, माता-पिता, शिक्षक-मार्गदर्शकों के लिए एक अनमोल खज़ाना साबित हो सकती है जो बच्‍चों को पंचतंत्र, हितोपदेश की कहानियां सुना-सुनाकर उनमें रोज़ कहानी सुनने की आदत डाल चुके हैं पर अब जिनका स्‍टॉक खत्‍म होने के कगार पर है। और हाँ, यह खास तौर पर आपको आज के परिप्रेक्ष्‍य में बच्‍चों से संबंधित समस्‍याओं के निवारण का एक रचनात्‍मक रास्‍ता भी सुझाएंगी।     

Friday, 30 January 2015

जाड़ों की धूप


जाड़ों की सर्द सुबह को
आसमान की गोद में दुबके सूरज ने
सरकाकर जब बादलों की रज़ाई
धरती पर डाली एक नज़र अलसाई     

तब चाहरदीवारी के गुलमोहर से छनकर
आंगन में उतर आई कुनकुनी धूप

निपटाकर झटपट चूल्‍हा-चौका  
गृह बनिताओं ने जमाया आंगन में डेरा
कोई फैलाती दालान में पापड़-बड़ि‍यां
कोई लिए बैठी है पालक-मेथी-बथुआ

एक नवोढ़ा गुनगुना रही है अस्‍फुट-सा कोई गीत   
अहाते में अचार-मुरब्‍बों को दिखाती हुई धूप

अम्‍मा की तो लग गई लॉटरी 
सिकुड़ी बैठी थी लिहाफ़ में बनकर गठरी
अब धूप में बैठ पहले चुटिया गुंथवाएंगी
फिर मुनिया के अधूरे स्‍वेटर के फंदे चढ़ाएंगी  

खिल उठता अम्‍मा का ठण्‍ड से ज़र्द चेहरा   
जब-जब अपनी जादुई छड़ी घुमाती धूप  

             बूढ़े माली काका में भी आई कैसी गज़ब की फुर्ती                               
अब बस उनका बगीचा, खाद-बीज और खुरपी
पानी का पाइप जो था लॉन की छाती पर सुस्‍त पड़ा
मोटी-मोटी जलधाराओं से धो रहा है पत्तों का मुखड़ा
                        
कुम्‍हलाए फूल भी जैसे फिर जी उठते
जब उनकी पंखुड़ि‍यों को सहलाती धूप 

बिल्‍लू-बंटी-बब्‍ली को तो देखो क्‍या मस्‍ती छाई है
फेंककर एक तरफ टोपी-मफलर छत की दौड़ लगाई है
टेरिस के एक कोने में रखी पतंग और डोर
पड़े-पड़े हो रही थीं न जाने कब से बोर

लगा रहेगा आसमान में रंग-बिरंगी पतंगों का मेला
      जब तक छत पर तिरपाल बिछाए रहेगी धूप            

होने लगा सांझ का झुटपुटा
आंगन भी लगने लगा बुझा-बुझा   
पापड़-बड़ि‍यां और अचार-मुरब्‍बे
सब-के-सब घर के भीतर खिसके   

इधर उतर रही अम्‍बर से संध्‍या-सुंदरी
उधर नीम-अंधेरे में गड्डमड्ड हो रही धूप    

रसोई में पक रही है ताज़ा मेथी
अम्‍मा बैठी मंदिर में बांच रही है अपनी पोथी
खेलकूद के बाद अब बच्‍चे भी कर रहे हैं पढ़ाई
खत्‍म हुई हरी-पीली पतंगों की लड़ाई   

जड़-चेतन के जीवन को कर यूं स्‍पंदित
समा गई सूरज की बांहों में थकी-थकी सी धूप 

Thursday, 15 January 2015

On Sundays
















It is Sunday tomorrow
he plans to sleep till late in the morning
there is just one day for rest
‘don’t disturb’; children are already given the warning 

She too is feeling a little relaxed
as there will be no office hurry
cupboards are stacked with dirty clothes
so, she plans to do the laundry

He takes pleasure
in having bed tea with newspaper
news, articles and feature
replete with all information and knowledge treasure  

She will clean the house
and remove all the clutter
it is her resolve on holidays
to make the house tidy and better

He is planning to have sunbath this Sunday
the sun is shining pleasantly bright
eating groundnuts soaking in the sun
what a delight! what a delight! 

The sun goes down the horizon
by the time she is free
She forgets her body need of Vitamin D
in her cleaning and washing spree

He is planning to watch the new film
brought last night
made by his favorite director on his favorite subject
Indian society and women’s plight

It is a holiday   
so children have refused to eat chapatti and curry
she is already in the kitchen
cooking veg. manchurian with gravy
  
Her hands are busy chopping onions
When the little baby does poo
he screams seated on the sofa
oh dear! please see, where are you?

She cleans the shit and makes fried rice
everybody licks the fingers
saying the whole meal is perfect
tasty, wonderful, very nice

She thinks of asking him to make her a cup of tea
much needed in winters to work and survive
but he is dressed up
all set to go on a long drive 

He comes late in the night
full of excitement
shows her the photos clicked
and slips in the blanket

After a long hectic day
she plans to read something at night
but he is extremely tired and wants to sleep
so she silently switches off the light 

Monday, 8 December 2014

कहाँ गया ओ! बचपन मेरे




  
कहां गया ओ! बचपन मेरे
लेकर मस्‍ती भरे दिन सुनहरे

 झरते ही दो आँसू आँखों से माँ दौड़ी चली आती थी
पहले भरती आलिंगन में फिर अमृत जैसा दूध पिलाती थी 
पाकर ममता की मधुर खुराक 
देह ही नहीं आत्‍मा भी तृप्‍त हो जाती थी

लौटा दे मुझे वो ममताभरा आँचल
सुरभि माँ के शरीर की   
जब से छूटी उसकी देहरी
हुई मैं तो अनाथ-सी

किसे कब क्‍या चाहिए
बिन कहे पापा न जाने कैसे जान जाते थे
पंचतंत्र-हितोपदेश की कहानियों के बहाने
जीवन के नित नए पाठ पढ़ाते थे

एक मौका दे-दे फिर से
उनसे गुड़ि‍या की ज़ि‍द्द करने का
थामकर उनकी अंगुली
जीवन की फिसलनभरी राहों पर संभलने का

दिन-रात सताने-रुलाने वाली बहना 
परीक्षा के दिनों में हर विध साथ निभाती थी
बोल-बोलकर याद कराती हर सबक 
खुद ही किताब बन सामने खुल जाती थी

मुझे फिर उसके पीछे बैठ साइकिल पे
बर्फ का गोला खाने जाना है
पहले जमकर लड़ना फिर सिरदर्द होने पर
कनपटियों पर उसका स्‍नेहिल स्‍पर्श पाना है

छूट गए वो संगी-साथी
जिनके साथ अजब-अनोखी यारी थी
जिस सखी से लड़ बैठे सुबह-सवेरे
शाम उसी के साथ खेलते हुए गुज़ारी थी

मुझे फिर पहन के पापा की ऐनक
टीचर-टीचर का खेल रचाना है
बांधकर माँ की साड़ी
मेहमानों को 'रसना' पिलाना है

रूठ न मुझसे प्‍यारे बचपन
ले स्‍वागत में तेरे मैंने बाँहें फैलाईं
अरे! ये देखो तूफान-मेल सी दौड़ती
मेरी नन्‍हीं परी उनमें आ समाई

चल माँ, हम दोनों पकड़म-पकड़ाई खेलते हैं
मेरे सारे दोस्‍त हैं गंदे, मुझसे नहीं बोलते हैं 
रात तू मुझको झांसी की रानी की कहानी सुनाना
कल की तरह फिर अपने वादे से मुकर न जाना 

 साथ बिटिया के खेलते-कूदते 

मैंने वो निर्मल शांति पाई
बरसने लगा नेह का निर्झर
मन की कुटिया में फिर हरियाली छाई

धुल गए अवसाद के सब क्षण 
जीवन में नवल उत्‍साह छाया
पंथ निहारती रही जिसका बरसों 
वो बचपन बिटिया के रूप में फिर लौटकर आया


Friday, 31 October 2014

आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

ढल रही शनिवार की शाम    
कल है इतवार
एक दिन की ऑफिस की छुट्टी में 
कर डालूंगी अपनी लाडो को हफ्तेभर का प्‍यार

सुबह-सुबह जब वो नींदों में लेटी-लेटी कुनमुनाएगी
और लोटपोट होती बिस्‍तर पर मुझे टटोले जाएगी
चिपकाकर छाती से उसको पहले माथा सहलाऊंगी
फिर हौले-हौले देकर थपकियां मन-ही-मन गुनगुनाऊंगी
सो जा रानी, सो जा, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी 

अलसाई आंखों को मलती जब वो मम्‍मा आवाज़ लगाएगी
छोड़कर सब चूल्‍हा-चौका कमरे की दौड़ लगाऊंगी
लेकर बलैयां उसके बिखरे बालों की  
बांहों के झूले झुलाऊंगी
जीभर के सुस्‍ता ले रानी, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी  

डालकर काजू, किशमिश, केसर आज लाडो के लिए खीर बनाऊंगी
जो न भाई खस्‍ता पूड़ी, फटाफट गरम परांठा सेंककर लाऊंगी
इडली, आमलेट, पुलाव-सब होंगे एक इशारे पर हाज़ि‍र
खिलाकर एक-एक निवाला उसे अपने हाथों से, मैं भी तृप्‍त हो जाऊंगी
कर ले रानी जीभर कर नखरे, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

कल लाई जो बाज़ार से नया, उस स्विमिंग पूल में नहलाऊंगी
पहले भरूंगी पूल को रंग-बिरंगी गेंदों से फिर लाडो को उसमें बैठाऊंगी  
जब वो मस्‍ती में आकर करेगी छप-छप
और अपनी नन्‍ही अंजुरि में भर-भरकर पानी मुझे भिगोएगी
खूब खेलूंगी लाडो के साथ बेमौसम होली, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

लो हो गई शाम, लाडो मचल रही है बाहर जाने को
नज़र न लग जाए कहीं किसी की, सबसे पहले काला टीका लगाऊंगी
फिर पैरों में डालकर क्रॉक्‍स, बालों में मैचिंग क्लिप्‍स सजाऊंगी
जब खेलेंगे हम पकड़म-पकड़ाई उसके साथ मैं भी बच्‍ची बन जाऊंगी
घर लौटकर सबसे पहले उसके नन्‍हे पैर दबाऊंगी, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

पर ज्‍यों-ज्‍यों घिरेगा अंधेरा, मन-ही-मन कच्‍ची पड़ती जाऊंगी
कल फिर जाना है ऑफिस, यह सोच-सोच घबराऊंगी  
लाडो को तो बहला लेंगे सब मिलकर पर मुझे कौन समझाएगा  
मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते भावों की थाह भला कौन पाएगा 
सबके लिए तो ढलेगा सूरज पर मेरा तो सुख अस्‍ताचल जाएगा  

न कुछ कर सकी तो रात के लंबी होने की दुआ मनाऊंगी
रातभर चिपटाए रखूंगी उसे कलेजे से
पर उगते ही सूरज फिर घड़ी की सुइयों का हुक्‍म बजाऊंगी 
सोती हुई लाडो की नन्‍हीं हथेली के नीचे रखकर तकिया  
बुझे मन और भारी कदमों से एक बार फिर ऑफिस चली जाऊंगी  

Friday, 17 October 2014

नया सवेरा

वेक अप! वेक अप! दिस इज़ ए ब्रेण्‍ड न्‍यू मॉर्निंग’, मानसी ने लेटे-लेटे ही तकिए के नीचे से मोबाइल निकालकर अलार्म बंद कर दिया। कुछ समय पहले की बात होती तो इस अलार्म टोन से वह कुढ़ जाती...ब्रेण्‍ड न्‍यू मॉर्निंग...हुंह! काहे की न्‍यू मॉर्निंग। रोज़ एक ही तरह से तो बीतता है उसका दिन-वही चूल्‍हा-चक्‍की, वही घर-गृहस्‍थी। कहां कुछ नया है? पर आज उसके होंठों पर मंद मुस्‍कान खेल रही थी। जब से उसने नया स्‍मार्टफोन लिया था, उसके तो सुबह से लेकर शाम तक-मानो सब बदल गए थे।

उठने लगी तो देखा कि व्‍हाट्सएप पर कविता का संदेश आया हुआ था। खूब चटख रंग के फूलों से अत्‍यंत कलात्‍मक तरीके से स्‍क्रीन पर लिखा था, शुभ प्रात:, आपका दिन मंगलमय हो। उसका मन खुश हो गया। कविता उसकी स्‍कूल के दिनों की सहेली थी और कुछ महीने पहले ही फेसबुक के ज़रिए उन दोनों की करीब 15 साल बाद फिर से मुलाकात हुई थी। शुक्रिया, सुप्रभात का संदेश लिखकर गुनगुनाते हुए वह गुसलखाने की तरफ बढ़ी। फ्रेश होकर रसोईघर में आई तो सबसे पहले ईयरपीस कानों में लगाया और मोबाइल पर हरि ओम शरण के अपने पसंदीदा भजन लगा लिए। स्‍कूल के दिनों से ही मानसी की आदत सुबह उठते ही भजन सुनने की थी पर विवेक की अक्‍सर नाइट शिफ्ट होने के कारण उसने शादी के बाद से ऐसा करना छोड़ दिया था। म्‍यूजिक सिस्‍टम चलने पर विवेक की नींद में खलल पड़ता था पर अब एक छोटे से ईयरपीस ने उसकी समस्‍या हल कर दी थी।    

चूल्‍हे पर चाय का पानी चढ़ाकर वह नाश्‍ते के लिए सब्जियां काटने लगी। तीन दिन बाद विवेक  अपने जयपुर दौरे से लौट रहे थे और अब एक घंटे में उदयपुर पहुंचने ही वाले थे। विवेक को सब्जियों वाले पोहे पसंद हैं पर अक्‍सर वो आलू-प्‍याज़ डालकर ही इतिश्री कर लेती है। आज वो खूब सारी सब्जियां डालकर पोहे बनाएगी। उसके हाथ चॉपबोर्ड पर सब्जियां काटने में लगे थे पर मन पंख लगाकर अतीत की गलियों में जा पहुंचा था...शादी के समय वो एक निजी कॉलेज में व्‍याख्‍याता थी पर बेटी अवनि के होने के बाद उसे नौकरी छोड़नी पड़ी थी। विवेक का कहना था कि इस समय अवनि को मानसी की सबसे ज्‍यादा ज़रूरत है, नौकरी तो वो जब चाहे कर सकती है। वह शुरू से ही अपने करिअर को लेकर बहुत महत्‍वाकांक्षी रही थी पर विवेक की बात निराधार नहीं थी, इसलिए उसने भी नौकरी छोड़ने के लिए आसानी से सहमति दे दी थी।

जब तक अवनि स्‍कूल नहीं जाती थी, तब तक तो उसका दिन कैसे कट जाता, उसे खुद पता नहीं चलता था पर अब दो साल से अवनि स्‍कूल जाने लगी थी। वो घर में बैठी बोर होती पर अब भी अवनि इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह उसे घर पर अकेला छोड़कर काम पर जा सके। वो छटपटाकर रह जाती। तड़के पांच उठना और घर के कामकाज में जुत जाना, यही उसका जीवन हो गया था।

सुबह साढ़े छह बजे अ‍वनि की स्‍कूल बस सोसाइटी के गेट पर पहुंच जाती है। उठते ही पहले उसका टिफिन बनाना, फिर पतिदेव को चाय पकड़ाकर बिटिया को जगाना और स्‍कूल के लिए तैयार करना। उस पर, अवनि को जगाना भी कोई कम आफत का काम थोड़े ही है। कितने भी लाड़ जताकर उठाओ, वो बार-बार कुनमुना कर सो जाती है। कभी-कभी तो उसे अवनि पर तरस आता है। इतने छोटे बच्‍चे का सुबह-सुबह स्‍कूल भागना...किसी सज़ा से कम है क्‍या? इतनी सुबह तो बिस्‍तर का मोह बड़े-बड़े भी मुश्किल से ही छोड़ पाते हैं।  

बहरहाल, यंत्रवत् यही सब करते-करते घड़ी की सुई कब 9 पर आ टिकती, उसे पता तक नहीं चलता। सुबह 9 बजे जब पतिदेव भी दफ्तर चले जाते तो वो तसल्‍ली से अपने लिए खूब खौलाकर अदरक-दालचीनी वाली चाय बनाती। उसके बाद घर-गृहस्‍थी के बाकी काम। करीब 12 बजे अवनि घर लौटती तो उसे खाना खिलाकर सुला देती और घंटा-दो घंटा टी.वी. देखकर खुदकर भी सो जाती। उठने के बाद फोन पर दोस्‍तों से गप्‍पबाज़ी और शाम होते ही फिर वही घर-गृहस्‍थी के पचड़े। दिन यूं ही कट रहे थे-बिल्‍कुल एक जैसे पर मानसी के मन का कहीं कोई कोना रीता ज़रूर था जिसका ठीक-ठीक आभास शायद खुद उसे भी नहीं था। इसलिए कुछ समय से उसके स्‍वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया था...कितनी ही बार वह विवेक को तुनककर जवाब देती और अवनि को भी बात-बेबात फटकार देती।   

विवेक उसकी इस बैचेनी का कारण समझते थे। वे भी इस अपराधबोध से ग्रस्‍त रहते कि इतनी मेधावी होने के बावजूद मानसी ने उनकी घर-गृहस्‍थी संभालने के लिए अपने करिअर से समझौता किया। वो अक्‍सर मानसी से कहते, ‘‘कोशिश करो कि खाली समय में टी.वी. देखने या फोन पर बातें करने की बजाय कोई अच्‍छी किताब पढ़ो या संगीत सुनो।’’ इस पर मानसी और चिढ़ जाती, ‘‘दिनभर घर के काम में खटने के बाद थोड़ी देर टी.वी. देखना या सहेलियों से बात करना भी गुनाह है क्‍या?’’ विवेक चुप रह जाते। छुट्टी के दिन मानसी और अवनि को बाहर घुमाने ले जाकर, रेस्‍त्रां में खाना खिलाकर अपनी तरफ से कुछ भरपाई करने की कोशिश करते। एक-आध दिन तो मानसी खुश रहती पर फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता।  

मानसी का जन्‍मदिन आने वाला था। ‘‘मानसी! इस बार जन्‍मदिन पर क्‍या तोहफा लेना चाहती हो’’? विवेक ने पूछा। ‘‘मेरे मोबाइल में कुछ दिनों से आवाज़ साफ नहीं आ रही। सोच रही हूं वही ले लूं।’’ ‘‘ठीक है, आज शाम तैयार रहना। हम तुम्‍हारा नया मोबाइल लेने चलेंगे।’’ दुकान पर वह विवेक से कहती रही कि उसे कोई सस्‍ता-सा मोबाइल दिला दे, उसे कौन-सा बाहर जाना है। घर पर ही तो रहना है पर विवेक उसे आधुनिक एंड्रॉयड मोबाइल दिलाकर ही माने। उनका तर्क था कि इस पर इंटरनेट और अनेक एप्लिकेशन्‍स होने से वह उसका कई तरीकों से इस्‍तेमाल कर सकेगी। लगे हाथ ही उन्‍होंने उसके मोबाइल में इंटरनेट कार्ड भी डलवा दिया और घर आते ही उस पर अनेक एप्लिकेशन्‍स डाउनलोड कर दीं। इसके बाद उन्‍होंने मानसी का फेसबुक अकाउंट बनाया और सर्च ऑप्‍शन में जाकर पहला नाम लिखा, कविता कुलश्रेष्ठ और ढेरों कविता कुलश्रेष्‍ठ मोबाइल स्‍क्रीन पर प्रकट हो गईं। अचानक तीसरे नंबर पर अपनी बचपन की सहेली की तस्‍वीर देखकर मानसी ठिठक गई। अरे! कितनी अलग लग रही है कविता’, कविता बदल ज़रूर गई थी पर उसका मस्‍तमौला अंदाज़ वही पुराना था जो तस्‍वीर में, स्‍केटिंग करते हुए भी उसके चेहरे पर साफ नज़र आ रहा था। विवेक ने मानसी की तरफ से लिखा, हैलो!’ और कविता को लॉग इन करना सिखाकर सोने चले गए। अगले दिन तड़के विवेक को तीन दिन के लिए लखनऊ दौरे पर निकलना था, इसलिए मानसी भी रसोईघर में जाकर सुबह की तैयारियों में लग गई। 

सुबह करीब पांच बजे विवेक स्‍टेशन के लिए रवाना हो गए। शनिवार होने के कारण अवनि की छुट्टी थी, इसलिए मानसी भी देर तक सोने के मूड में थी पर अचानक मोबाइल पर टन् न् न् की आवाज़ से चौंक गई। देखा तो फेसबुक पर कविता का मैसेज था, हाय!!!’ मानसी तो खुशी के मारे उछल ही पड़ी। एक बार फिर टन् न् न् की आवाज़ हुई और उसका दूसरा संदेश आया, मानसीSSSSSS कैसी है? कहां है आजकल?’ उसके बाद तो दोनों सहेलियों के बीच बातचीत का जो दौर शुरू हुआ, वो कविता के बच्‍चों के स्‍कूल जाने का समय हो जाने पर ही खत्‍म हुआ। अवनि अभी सोई हुई थी, इसलिए मानसी फोटो एल्‍बम में जाकर उसकी तस्‍वीरें देखने लगी। घूमने-फिरने के साथ-साथ ईनाम लेते हुए भी कविता की कई तस्‍वीरें एल्‍बम में लगी थी। मानसी को कुछ समझ नहीं आया। पिछले दो घंटों की बातचीत में उसने इतना तो जान लिया था कि कविता भी उसी की तरह उदयपुर में रह रही थी और एक गृहिणी थी। उसके पति एक सरकारी कंपनी में उच्‍च पद पर थे और इन दिनों जयपुर में पदस्‍थापित थे। बच्‍चों की पढ़ाई के कारण बाकी परिवार अभी उदयपुर में ही रह रहा था। 

अगले दिन कविता ने उसे अपने घर आने का न्‍यौता दिया था। मानसी सुबह से ही बहुत रोमांचित थी, सो जल्‍दी-जल्‍दी घर का काम निपटाकर कविता के बताए पते पर पहुंच गई। कविता के चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्‍कान थी। अवनि जल्‍द ही कविता के बच्‍चों के साथ घुल-मिल गई। ढेर सारी बातों के बीच मानसी ने कविता से ईनाम वाली तस्वीरों के बारे में पूछा। ‘‘अरे, वो तो मेरी वेबसाइट को सर्वश्रेष्‍ठ कुकरी वेबसाइट का पुरस्‍कार मिला था, उसकी हैं।’’ कविता की आंखों में अनोखी चमक थी। ‘‘पता है, दो महीने पहले ही मैंने एक अंतर्राज्‍यीय कुकिंग प्रतियोगिता जीती है जिसके पुरस्‍कार के रूप में अगले महीने मुझे संजीव कपूर के चैनल फूड-फूड में गेस्‍ट शेफ के तौर पर जाने का मौका मिल रहा है।’’ 

''ये देखो मेरी कुकरी वेबसाइट''
कविता अपनी ही रौ में बोली चली जा रही थी। ‘‘लेकिन तुझे यह वेबसाइट शुरू करने की सूझी कैसे?’’ ‘‘बस, बच्‍चों के स्‍कूल जाने के बाद घर में बैठी-बैठी बोर होती थी तो टाइम पास करने के लिए कोई न कोई व्‍यंजन बनाती रहती थी। एक दिन बेटी स्‍वाति ने अपने फेसबुक अकाउंट पर मेरे बनाए गोभी-मुसल्‍लम की फोटो खींचकर डाल दी। फोटो को जमकर लाइक मिले और उसके दोस्‍तों ने यमी’, देखते ही मुंह में पानी भर गया’, हमें कब खिला रही हो जैसे कमेंट्स लिखे। उसके बाद तो वो मेरा बनाया हर व्‍यंजन फेसबुक पर डालने लगी। उन पर आए कमेंट्स पढ़ने के चाव में मैं भी कंप्‍यूटर पर बैठने लगी और धीरे-धीरे दूसरी कुकिंग वेबसाइट्स भी देखने लगी। फिर अपनी एक वेबसाइट बनाई और उस पर नए-नए व्‍यंजन डालने लगी। धीरे-धीरे लोगों को मेरी रेसिपीज़ बहुत पसंद आने लगीं और मेरा हौंसला बढ़ता गया।’’

मानसी हैरान थी। कविता स्‍कूल के दिनों से ही बेहद अंतर्मुखी थी। पढ़ाई में भी उसे औसत ही कहा जा सकता था पर आज उसने भोजन पकाने जैसे अपने साधारण-से शौक को आगे बढ़ाकर एक मुकाम हासिल कर लिया था और एक वह है, पढ़ाई-लिखाई में शुरू से अव्‍वल रहने के बावजूद दिन-रात किलसती रहती है। क्‍यों नहीं वह खुद अब तक अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए नौकरी से इतर कोई मंच खोज पाई? यही सब सोचते-सोचते मानसी घर लौट आई।

कविता से कुछ घंटों की मुलाकात ने उसके व्‍यक्तित्‍व को झकझोर कर रख दिया था।  अब जैसे ही खाली समय मिलता मानसी अपने नए मोबाइल में इंटरनेट के जरिए नई-नई चीज़ें देखतीं और ज्ञान के इस अथाह समुद्र को देखकर हैरान रह जाती। धीरे-धीरे उसने इंटरनेट पर कुछ ऐसी कंपनियों से संपर्क किया जो घर बैठे ही लेखन और अनुवाद का काम देती थीं और ईमेल के ज़रिए ही काम पूरा करके भेजना होता था। इस काम से उसे आमदनी तो बहुत ज्‍यादा नहीं होती थी लेकिन इससे मानसी का व्‍यर्थताबोध ज़रूर दूर हो गया था। उसका आत्‍मविश्‍वास भी बढ़ता जा रहा था। अब वह इंटरनेट पर खुद ही बिजली, टेलीफोन आदि के बिल जमा करवाने लगी थी। फेसबुक पर उसने अ‍पनी पुरानी सहेलियों और रिश्‍तेदारों को खोजने का अभियान छेड़ दिया था और कितने ही भूले-बिसरे रिश्‍तों से एक बार फिर स्‍नेह-सूत्र जुड़ गया था। एक छोटे-से मोबाइल ने उसका जीवन बदलकर रख दिया था। अखबार के ई-संस्‍करण भी उस छोटी-सी स्‍क्रीन पर सिमट आए थे। यू-ट्यूब पर देखे प्रेरक वक्‍ताओं के भाषण भी उसके व्‍यक्तित्‍व को एक नया ही रंग दे रहे थे। यहां तक कि अवनि को नए रचनात्‍मक तरीके से पढ़ाने के लिए भी इंटरनेट बहुत अच्‍छा स्रोत साबित हो रहा था।

अचानक डोरबैल की आवाज़ से उसके विचारों का क्रम टूटा। चाय का पानी खौल-खौलकर आधा रह गया था। उसने फटाफट गैस बंद करके दरवाज़ा खोला। सोसाइटी का गार्ड एक लिफाफा लिए खड़ा था। अपने नाम का लिफाफा देखकर उसे कुछ अचरज हुआ। खोला तो उसमें दो हज़ार रुपए का एक चैक था। साथ में एक पत्र था जिसमें अत्‍यंत संक्षेप में लिखा था, आपके द्वारा भेजा गया लेख हमारी प्रतिष्ठित पत्रिका सुखदा में प्रकाशन के लिए चयनित हुआ है। बधाई! मानदेय राशि का चेक संलग्‍न है। मानसी की खुशी का पारावर नहीं था। कितने ही वर्षों बाद आज उसके हाथों में खुद उसकी कमाई थी...उसकी आंखों से खुशी के आंसू झरने लगे। उसने फटाफट अपना मोबाइल उठाया और टाइप करने लगी, ‘‘शुक्रिया विवेक ! एक ब्रेण्‍ड न्‍यू लाइफ़ के लिए।’’ 

Monday, 1 September 2014

Memoirs of a nature kid

I was sitting in the balcony of my house trying to feed my one year old the parantha I had made with ‘extra ghee’ for her. Suddenly, a sparrow came and pecked on the plate. Before I could make out what had happened, it flew away. I once again pegged away at feeding my daughter but the bird’s aerial attack was a reason enough to distract her. I tried to trick her into eating her food by applying her granny’s formula and putting the morsel in her mouth saying ‘Ek nivala haathi ka, ek nivala ghode ka’ but all in vain. Giving myself completely to her whims, I started beholding the Bottlebrush tree right in front of my house on which the sparrow had perched after stealing the parantha and my little daughter was gazing at.

The tree had a nest made of straw, hay, plastic pieces, paper clippings and what not! Three baby sparrows were peeping out of it. Their white-grizzly stomachs were glowing in the pleasant winter sun. Mother sparrow was putting small bites of parantha in their little mouths one by one while the babies, with their glossy bills, were vying with each other as if each of them pleading to the mother, ‘let me be the first’, ‘let me be the first’.  

People living in apartments, especially in metro cities, can only tell how rare this sight is for them. Seeing something as refreshing as this brought smile to my lips. My heart filled with fragrance of old memories when I was a student of class XII and after completion of half-yearly exams I had decided to prepare for annual exams staying at home only. I would love to study sitting in the big veranda and the lush green lawn of my house. I had kept a table and a chair there permanently and would sojourn there till the breeze turned chilly in the evening.

While studying I also kept myself fueling with til laddus, rewaris and groundnuts. One day when I was engrossed in my book, sound of “tut tut” attracted my attention. What I saw was quite amusing. A squirrel was sitting in the plate lying under my table with a groundnut in her hand. It was intriguing enough, so without making any sound, I started watching her. What I saw was totally unanticipated and electrifying. The squirrel first ripped the brown rind of the groundnut, and after removing its pink peel meticulously started to nibble the groundnut. I am sure, she was not enjoying the groundnut any lesser than humans. I was astonished to see the extent to which activities of a squirrel match the humans while snacking on the groundnuts!!! And then it became order of the day. I would deliberately put groundnuts or laddus under my study table and enjoy the spectacle. It seemed as if the squirrel had invited her friends from bird sphere and now the birds relishing this sumptuous feast also included a mynah, a sparrow and a beautiful bird with a red glossy beak. Each of them had a different choice regarding the food served and also a specific style of eating it. I had also put a water bowl in lawn. The birds would not only drink water from it but would also drench themselves in it. With every passing day, they looked least concerned about my presence.     

Sitting in the lawn daylong would make me hear many pleasant sounds every now and then. It included twitter of the mynahs as well as high-pitched squeaks of the parrots. I remember my father would go right straight to the rooftop as soon as he got up in the morning and feed the pigeons. If it was delayed for any reason any day, the pigeons would start pecking on the roof. Their aggression clearly showed their impatience for their first meal of the day. At the same time, it seemed as if the singing parrots sitting on the electricity poles and cables outside the house offered morning prayers to God. 

This reminded me of ‘Mataji’. This is what my family called her on the lines of ‘cow is our mother’. She had a spotty body and beautiful sooted eyes. She kept coming to our house for years. We never knew where did she come from but she would come almost on the same time every day. My mother would cook first chapatti for her in morning.  In utter contradiction to the pigeons coming early morning, she was extremely patient…may be because she was ‘Mataji’. She would moo at the main gate around 2o’clock in afternoon and go away after eating her chapatti. It always remained a surprise for me why she had never consumed the plants in the lawn.
  
I was so lost in my thoughts that couldn’t sense when the sparrow had come back and sat on the railing of the balcony. My little one’s clapping and chuckling brought me back to the present. I, then, picking nature’s clue left the plate on balcony floor and went inside holding my daughter in the lap. This made me think how we fail to live the pleasant moments we stumble on in hustle and bustle of our modern lifestyle. Today, flat culture of metropolitan cities has made the sight of common creatures like birds, cows and parrots rare enough while a decade ago even stray dogs and cows would unknowingly become a part of the family. 

I fear that with the mushrooming of concrete jungles everywhere, these delightful sights will become a part of virtual world and our progeny would see the parrots, mynah and squirrels on ‘Google Images’ only and have to resort to internet to prepare a small write-up on ‘cow’. I wish our age old established relationships with the nature like billi masi and chanda mama don’t become a part of ‘glorious’ past. The onus of connecting our children with nature is on us. Let’s begin by taking baby steps in this direction. The simplest and doable idea is to start putting a water-pot for birds in our balconies and asking our kids to take care of it. Let’s enjoy our weekends with family in open picnic spots along with malls, giving our children an opportunity to have the feel-good moments of life that we still cherish.

(Published in Hindustan Times)