Monday 8 December 2014

कहाँ गया ओ! बचपन मेरे




  
कहां गया ओ! बचपन मेरे
लेकर मस्‍ती भरे दिन सुनहरे

 झरते ही दो आँसू आँखों से माँ दौड़ी चली आती थी
पहले भरती आलिंगन में फिर अमृत जैसा दूध पिलाती थी 
पाकर ममता की मधुर खुराक 
देह ही नहीं आत्‍मा भी तृप्‍त हो जाती थी

लौटा दे मुझे वो ममताभरा आँचल
सुरभि माँ के शरीर की   
जब से छूटी उसकी देहरी
हुई मैं तो अनाथ-सी

किसे कब क्‍या चाहिए
बिन कहे पापा न जाने कैसे जान जाते थे
पंचतंत्र-हितोपदेश की कहानियों के बहाने
जीवन के नित नए पाठ पढ़ाते थे

एक मौका दे-दे फिर से
उनसे गुड़ि‍या की ज़ि‍द्द करने का
थामकर उनकी अंगुली
जीवन की फिसलनभरी राहों पर संभलने का

दिन-रात सताने-रुलाने वाली बहना 
परीक्षा के दिनों में हर विध साथ निभाती थी
बोल-बोलकर याद कराती हर सबक 
खुद ही किताब बन सामने खुल जाती थी

मुझे फिर उसके पीछे बैठ साइकिल पे
बर्फ का गोला खाने जाना है
पहले जमकर लड़ना फिर सिरदर्द होने पर
कनपटियों पर उसका स्‍नेहिल स्‍पर्श पाना है

छूट गए वो संगी-साथी
जिनके साथ अजब-अनोखी यारी थी
जिस सखी से लड़ बैठे सुबह-सवेरे
शाम उसी के साथ खेलते हुए गुज़ारी थी

मुझे फिर पहन के पापा की ऐनक
टीचर-टीचर का खेल रचाना है
बांधकर माँ की साड़ी
मेहमानों को 'रसना' पिलाना है

रूठ न मुझसे प्‍यारे बचपन
ले स्‍वागत में तेरे मैंने बाँहें फैलाईं
अरे! ये देखो तूफान-मेल सी दौड़ती
मेरी नन्‍हीं परी उनमें आ समाई

चल माँ, हम दोनों पकड़म-पकड़ाई खेलते हैं
मेरे सारे दोस्‍त हैं गंदे, मुझसे नहीं बोलते हैं 
रात तू मुझको झांसी की रानी की कहानी सुनाना
कल की तरह फिर अपने वादे से मुकर न जाना 

 साथ बिटिया के खेलते-कूदते 

मैंने वो निर्मल शांति पाई
बरसने लगा नेह का निर्झर
मन की कुटिया में फिर हरियाली छाई

धुल गए अवसाद के सब क्षण 
जीवन में नवल उत्‍साह छाया
पंथ निहारती रही जिसका बरसों 
वो बचपन बिटिया के रूप में फिर लौटकर आया


Friday 31 October 2014

आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

ढल रही शनिवार की शाम    
कल है इतवार
एक दिन की ऑफिस की छुट्टी में 
कर डालूंगी अपनी लाडो को हफ्तेभर का प्‍यार

सुबह-सुबह जब वो नींदों में लेटी-लेटी कुनमुनाएगी
और लोटपोट होती बिस्‍तर पर मुझे टटोले जाएगी
चिपकाकर छाती से उसको पहले माथा सहलाऊंगी
फिर हौले-हौले देकर थपकियां मन-ही-मन गुनगुनाऊंगी
सो जा रानी, सो जा, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी 

अलसाई आंखों को मलती जब वो मम्‍मा आवाज़ लगाएगी
छोड़कर सब चूल्‍हा-चौका कमरे की दौड़ लगाऊंगी
लेकर बलैयां उसके बिखरे बालों की  
बांहों के झूले झुलाऊंगी
जीभर के सुस्‍ता ले रानी, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी  

डालकर काजू, किशमिश, केसर आज लाडो के लिए खीर बनाऊंगी
जो न भाई खस्‍ता पूड़ी, फटाफट गरम परांठा सेंककर लाऊंगी
इडली, आमलेट, पुलाव-सब होंगे एक इशारे पर हाज़ि‍र
खिलाकर एक-एक निवाला उसे अपने हाथों से, मैं भी तृप्‍त हो जाऊंगी
कर ले रानी जीभर कर नखरे, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

कल लाई जो बाज़ार से नया, उस स्विमिंग पूल में नहलाऊंगी
पहले भरूंगी पूल को रंग-बिरंगी गेंदों से फिर लाडो को उसमें बैठाऊंगी  
जब वो मस्‍ती में आकर करेगी छप-छप
और अपनी नन्‍ही अंजुरि में भर-भरकर पानी मुझे भिगोएगी
खूब खेलूंगी लाडो के साथ बेमौसम होली, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

लो हो गई शाम, लाडो मचल रही है बाहर जाने को
नज़र न लग जाए कहीं किसी की, सबसे पहले काला टीका लगाऊंगी
फिर पैरों में डालकर क्रॉक्‍स, बालों में मैचिंग क्लिप्‍स सजाऊंगी
जब खेलेंगे हम पकड़म-पकड़ाई उसके साथ मैं भी बच्‍ची बन जाऊंगी
घर लौटकर सबसे पहले उसके नन्‍हे पैर दबाऊंगी, आज मैं ऑफिस नहीं जाऊंगी

पर ज्‍यों-ज्‍यों घिरेगा अंधेरा, मन-ही-मन कच्‍ची पड़ती जाऊंगी
कल फिर जाना है ऑफिस, यह सोच-सोच घबराऊंगी  
लाडो को तो बहला लेंगे सब मिलकर पर मुझे कौन समझाएगा  
मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते भावों की थाह भला कौन पाएगा 
सबके लिए तो ढलेगा सूरज पर मेरा तो सुख अस्‍ताचल जाएगा  

न कुछ कर सकी तो रात के लंबी होने की दुआ मनाऊंगी
रातभर चिपटाए रखूंगी उसे कलेजे से
पर उगते ही सूरज फिर घड़ी की सुइयों का हुक्‍म बजाऊंगी 
सोती हुई लाडो की नन्‍हीं हथेली के नीचे रखकर तकिया  
बुझे मन और भारी कदमों से एक बार फिर ऑफिस चली जाऊंगी  

Friday 17 October 2014

नया सवेरा

वेक अप! वेक अप! दिस इज़ ए ब्रेण्‍ड न्‍यू मॉर्निंग’, मानसी ने लेटे-लेटे ही तकिए के नीचे से मोबाइल निकालकर अलार्म बंद कर दिया। कुछ समय पहले की बात होती तो इस अलार्म टोन से वह कुढ़ जाती...ब्रेण्‍ड न्‍यू मॉर्निंग...हुंह! काहे की न्‍यू मॉर्निंग। रोज़ एक ही तरह से तो बीतता है उसका दिन-वही चूल्‍हा-चक्‍की, वही घर-गृहस्‍थी। कहां कुछ नया है? पर आज उसके होंठों पर मंद मुस्‍कान खेल रही थी। जब से उसने नया स्‍मार्टफोन लिया था, उसके तो सुबह से लेकर शाम तक-मानो सब बदल गए थे।

उठने लगी तो देखा कि व्‍हाट्सएप पर कविता का संदेश आया हुआ था। खूब चटख रंग के फूलों से अत्‍यंत कलात्‍मक तरीके से स्‍क्रीन पर लिखा था, शुभ प्रात:, आपका दिन मंगलमय हो। उसका मन खुश हो गया। कविता उसकी स्‍कूल के दिनों की सहेली थी और कुछ महीने पहले ही फेसबुक के ज़रिए उन दोनों की करीब 15 साल बाद फिर से मुलाकात हुई थी। शुक्रिया, सुप्रभात का संदेश लिखकर गुनगुनाते हुए वह गुसलखाने की तरफ बढ़ी। फ्रेश होकर रसोईघर में आई तो सबसे पहले ईयरपीस कानों में लगाया और मोबाइल पर हरि ओम शरण के अपने पसंदीदा भजन लगा लिए। स्‍कूल के दिनों से ही मानसी की आदत सुबह उठते ही भजन सुनने की थी पर विवेक की अक्‍सर नाइट शिफ्ट होने के कारण उसने शादी के बाद से ऐसा करना छोड़ दिया था। म्‍यूजिक सिस्‍टम चलने पर विवेक की नींद में खलल पड़ता था पर अब एक छोटे से ईयरपीस ने उसकी समस्‍या हल कर दी थी।    

चूल्‍हे पर चाय का पानी चढ़ाकर वह नाश्‍ते के लिए सब्जियां काटने लगी। तीन दिन बाद विवेक  अपने जयपुर दौरे से लौट रहे थे और अब एक घंटे में उदयपुर पहुंचने ही वाले थे। विवेक को सब्जियों वाले पोहे पसंद हैं पर अक्‍सर वो आलू-प्‍याज़ डालकर ही इतिश्री कर लेती है। आज वो खूब सारी सब्जियां डालकर पोहे बनाएगी। उसके हाथ चॉपबोर्ड पर सब्जियां काटने में लगे थे पर मन पंख लगाकर अतीत की गलियों में जा पहुंचा था...शादी के समय वो एक निजी कॉलेज में व्‍याख्‍याता थी पर बेटी अवनि के होने के बाद उसे नौकरी छोड़नी पड़ी थी। विवेक का कहना था कि इस समय अवनि को मानसी की सबसे ज्‍यादा ज़रूरत है, नौकरी तो वो जब चाहे कर सकती है। वह शुरू से ही अपने करिअर को लेकर बहुत महत्‍वाकांक्षी रही थी पर विवेक की बात निराधार नहीं थी, इसलिए उसने भी नौकरी छोड़ने के लिए आसानी से सहमति दे दी थी।

जब तक अवनि स्‍कूल नहीं जाती थी, तब तक तो उसका दिन कैसे कट जाता, उसे खुद पता नहीं चलता था पर अब दो साल से अवनि स्‍कूल जाने लगी थी। वो घर में बैठी बोर होती पर अब भी अवनि इतनी बड़ी नहीं हुई थी कि वह उसे घर पर अकेला छोड़कर काम पर जा सके। वो छटपटाकर रह जाती। तड़के पांच उठना और घर के कामकाज में जुत जाना, यही उसका जीवन हो गया था।

सुबह साढ़े छह बजे अ‍वनि की स्‍कूल बस सोसाइटी के गेट पर पहुंच जाती है। उठते ही पहले उसका टिफिन बनाना, फिर पतिदेव को चाय पकड़ाकर बिटिया को जगाना और स्‍कूल के लिए तैयार करना। उस पर, अवनि को जगाना भी कोई कम आफत का काम थोड़े ही है। कितने भी लाड़ जताकर उठाओ, वो बार-बार कुनमुना कर सो जाती है। कभी-कभी तो उसे अवनि पर तरस आता है। इतने छोटे बच्‍चे का सुबह-सुबह स्‍कूल भागना...किसी सज़ा से कम है क्‍या? इतनी सुबह तो बिस्‍तर का मोह बड़े-बड़े भी मुश्किल से ही छोड़ पाते हैं।  

बहरहाल, यंत्रवत् यही सब करते-करते घड़ी की सुई कब 9 पर आ टिकती, उसे पता तक नहीं चलता। सुबह 9 बजे जब पतिदेव भी दफ्तर चले जाते तो वो तसल्‍ली से अपने लिए खूब खौलाकर अदरक-दालचीनी वाली चाय बनाती। उसके बाद घर-गृहस्‍थी के बाकी काम। करीब 12 बजे अवनि घर लौटती तो उसे खाना खिलाकर सुला देती और घंटा-दो घंटा टी.वी. देखकर खुदकर भी सो जाती। उठने के बाद फोन पर दोस्‍तों से गप्‍पबाज़ी और शाम होते ही फिर वही घर-गृहस्‍थी के पचड़े। दिन यूं ही कट रहे थे-बिल्‍कुल एक जैसे पर मानसी के मन का कहीं कोई कोना रीता ज़रूर था जिसका ठीक-ठीक आभास शायद खुद उसे भी नहीं था। इसलिए कुछ समय से उसके स्‍वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया था...कितनी ही बार वह विवेक को तुनककर जवाब देती और अवनि को भी बात-बेबात फटकार देती।   

विवेक उसकी इस बैचेनी का कारण समझते थे। वे भी इस अपराधबोध से ग्रस्‍त रहते कि इतनी मेधावी होने के बावजूद मानसी ने उनकी घर-गृहस्‍थी संभालने के लिए अपने करिअर से समझौता किया। वो अक्‍सर मानसी से कहते, ‘‘कोशिश करो कि खाली समय में टी.वी. देखने या फोन पर बातें करने की बजाय कोई अच्‍छी किताब पढ़ो या संगीत सुनो।’’ इस पर मानसी और चिढ़ जाती, ‘‘दिनभर घर के काम में खटने के बाद थोड़ी देर टी.वी. देखना या सहेलियों से बात करना भी गुनाह है क्‍या?’’ विवेक चुप रह जाते। छुट्टी के दिन मानसी और अवनि को बाहर घुमाने ले जाकर, रेस्‍त्रां में खाना खिलाकर अपनी तरफ से कुछ भरपाई करने की कोशिश करते। एक-आध दिन तो मानसी खुश रहती पर फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता।  

मानसी का जन्‍मदिन आने वाला था। ‘‘मानसी! इस बार जन्‍मदिन पर क्‍या तोहफा लेना चाहती हो’’? विवेक ने पूछा। ‘‘मेरे मोबाइल में कुछ दिनों से आवाज़ साफ नहीं आ रही। सोच रही हूं वही ले लूं।’’ ‘‘ठीक है, आज शाम तैयार रहना। हम तुम्‍हारा नया मोबाइल लेने चलेंगे।’’ दुकान पर वह विवेक से कहती रही कि उसे कोई सस्‍ता-सा मोबाइल दिला दे, उसे कौन-सा बाहर जाना है। घर पर ही तो रहना है पर विवेक उसे आधुनिक एंड्रॉयड मोबाइल दिलाकर ही माने। उनका तर्क था कि इस पर इंटरनेट और अनेक एप्लिकेशन्‍स होने से वह उसका कई तरीकों से इस्‍तेमाल कर सकेगी। लगे हाथ ही उन्‍होंने उसके मोबाइल में इंटरनेट कार्ड भी डलवा दिया और घर आते ही उस पर अनेक एप्लिकेशन्‍स डाउनलोड कर दीं। इसके बाद उन्‍होंने मानसी का फेसबुक अकाउंट बनाया और सर्च ऑप्‍शन में जाकर पहला नाम लिखा, कविता कुलश्रेष्ठ और ढेरों कविता कुलश्रेष्‍ठ मोबाइल स्‍क्रीन पर प्रकट हो गईं। अचानक तीसरे नंबर पर अपनी बचपन की सहेली की तस्‍वीर देखकर मानसी ठिठक गई। अरे! कितनी अलग लग रही है कविता’, कविता बदल ज़रूर गई थी पर उसका मस्‍तमौला अंदाज़ वही पुराना था जो तस्‍वीर में, स्‍केटिंग करते हुए भी उसके चेहरे पर साफ नज़र आ रहा था। विवेक ने मानसी की तरफ से लिखा, हैलो!’ और कविता को लॉग इन करना सिखाकर सोने चले गए। अगले दिन तड़के विवेक को तीन दिन के लिए लखनऊ दौरे पर निकलना था, इसलिए मानसी भी रसोईघर में जाकर सुबह की तैयारियों में लग गई। 

सुबह करीब पांच बजे विवेक स्‍टेशन के लिए रवाना हो गए। शनिवार होने के कारण अवनि की छुट्टी थी, इसलिए मानसी भी देर तक सोने के मूड में थी पर अचानक मोबाइल पर टन् न् न् की आवाज़ से चौंक गई। देखा तो फेसबुक पर कविता का मैसेज था, हाय!!!’ मानसी तो खुशी के मारे उछल ही पड़ी। एक बार फिर टन् न् न् की आवाज़ हुई और उसका दूसरा संदेश आया, मानसीSSSSSS कैसी है? कहां है आजकल?’ उसके बाद तो दोनों सहेलियों के बीच बातचीत का जो दौर शुरू हुआ, वो कविता के बच्‍चों के स्‍कूल जाने का समय हो जाने पर ही खत्‍म हुआ। अवनि अभी सोई हुई थी, इसलिए मानसी फोटो एल्‍बम में जाकर उसकी तस्‍वीरें देखने लगी। घूमने-फिरने के साथ-साथ ईनाम लेते हुए भी कविता की कई तस्‍वीरें एल्‍बम में लगी थी। मानसी को कुछ समझ नहीं आया। पिछले दो घंटों की बातचीत में उसने इतना तो जान लिया था कि कविता भी उसी की तरह उदयपुर में रह रही थी और एक गृहिणी थी। उसके पति एक सरकारी कंपनी में उच्‍च पद पर थे और इन दिनों जयपुर में पदस्‍थापित थे। बच्‍चों की पढ़ाई के कारण बाकी परिवार अभी उदयपुर में ही रह रहा था। 

अगले दिन कविता ने उसे अपने घर आने का न्‍यौता दिया था। मानसी सुबह से ही बहुत रोमांचित थी, सो जल्‍दी-जल्‍दी घर का काम निपटाकर कविता के बताए पते पर पहुंच गई। कविता के चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्‍कान थी। अवनि जल्‍द ही कविता के बच्‍चों के साथ घुल-मिल गई। ढेर सारी बातों के बीच मानसी ने कविता से ईनाम वाली तस्वीरों के बारे में पूछा। ‘‘अरे, वो तो मेरी वेबसाइट को सर्वश्रेष्‍ठ कुकरी वेबसाइट का पुरस्‍कार मिला था, उसकी हैं।’’ कविता की आंखों में अनोखी चमक थी। ‘‘पता है, दो महीने पहले ही मैंने एक अंतर्राज्‍यीय कुकिंग प्रतियोगिता जीती है जिसके पुरस्‍कार के रूप में अगले महीने मुझे संजीव कपूर के चैनल फूड-फूड में गेस्‍ट शेफ के तौर पर जाने का मौका मिल रहा है।’’ 

''ये देखो मेरी कुकरी वेबसाइट''
कविता अपनी ही रौ में बोली चली जा रही थी। ‘‘लेकिन तुझे यह वेबसाइट शुरू करने की सूझी कैसे?’’ ‘‘बस, बच्‍चों के स्‍कूल जाने के बाद घर में बैठी-बैठी बोर होती थी तो टाइम पास करने के लिए कोई न कोई व्‍यंजन बनाती रहती थी। एक दिन बेटी स्‍वाति ने अपने फेसबुक अकाउंट पर मेरे बनाए गोभी-मुसल्‍लम की फोटो खींचकर डाल दी। फोटो को जमकर लाइक मिले और उसके दोस्‍तों ने यमी’, देखते ही मुंह में पानी भर गया’, हमें कब खिला रही हो जैसे कमेंट्स लिखे। उसके बाद तो वो मेरा बनाया हर व्‍यंजन फेसबुक पर डालने लगी। उन पर आए कमेंट्स पढ़ने के चाव में मैं भी कंप्‍यूटर पर बैठने लगी और धीरे-धीरे दूसरी कुकिंग वेबसाइट्स भी देखने लगी। फिर अपनी एक वेबसाइट बनाई और उस पर नए-नए व्‍यंजन डालने लगी। धीरे-धीरे लोगों को मेरी रेसिपीज़ बहुत पसंद आने लगीं और मेरा हौंसला बढ़ता गया।’’

मानसी हैरान थी। कविता स्‍कूल के दिनों से ही बेहद अंतर्मुखी थी। पढ़ाई में भी उसे औसत ही कहा जा सकता था पर आज उसने भोजन पकाने जैसे अपने साधारण-से शौक को आगे बढ़ाकर एक मुकाम हासिल कर लिया था और एक वह है, पढ़ाई-लिखाई में शुरू से अव्‍वल रहने के बावजूद दिन-रात किलसती रहती है। क्‍यों नहीं वह खुद अब तक अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए नौकरी से इतर कोई मंच खोज पाई? यही सब सोचते-सोचते मानसी घर लौट आई।

कविता से कुछ घंटों की मुलाकात ने उसके व्‍यक्तित्‍व को झकझोर कर रख दिया था।  अब जैसे ही खाली समय मिलता मानसी अपने नए मोबाइल में इंटरनेट के जरिए नई-नई चीज़ें देखतीं और ज्ञान के इस अथाह समुद्र को देखकर हैरान रह जाती। धीरे-धीरे उसने इंटरनेट पर कुछ ऐसी कंपनियों से संपर्क किया जो घर बैठे ही लेखन और अनुवाद का काम देती थीं और ईमेल के ज़रिए ही काम पूरा करके भेजना होता था। इस काम से उसे आमदनी तो बहुत ज्‍यादा नहीं होती थी लेकिन इससे मानसी का व्‍यर्थताबोध ज़रूर दूर हो गया था। उसका आत्‍मविश्‍वास भी बढ़ता जा रहा था। अब वह इंटरनेट पर खुद ही बिजली, टेलीफोन आदि के बिल जमा करवाने लगी थी। फेसबुक पर उसने अ‍पनी पुरानी सहेलियों और रिश्‍तेदारों को खोजने का अभियान छेड़ दिया था और कितने ही भूले-बिसरे रिश्‍तों से एक बार फिर स्‍नेह-सूत्र जुड़ गया था। एक छोटे-से मोबाइल ने उसका जीवन बदलकर रख दिया था। अखबार के ई-संस्‍करण भी उस छोटी-सी स्‍क्रीन पर सिमट आए थे। यू-ट्यूब पर देखे प्रेरक वक्‍ताओं के भाषण भी उसके व्‍यक्तित्‍व को एक नया ही रंग दे रहे थे। यहां तक कि अवनि को नए रचनात्‍मक तरीके से पढ़ाने के लिए भी इंटरनेट बहुत अच्‍छा स्रोत साबित हो रहा था।

अचानक डोरबैल की आवाज़ से उसके विचारों का क्रम टूटा। चाय का पानी खौल-खौलकर आधा रह गया था। उसने फटाफट गैस बंद करके दरवाज़ा खोला। सोसाइटी का गार्ड एक लिफाफा लिए खड़ा था। अपने नाम का लिफाफा देखकर उसे कुछ अचरज हुआ। खोला तो उसमें दो हज़ार रुपए का एक चैक था। साथ में एक पत्र था जिसमें अत्‍यंत संक्षेप में लिखा था, आपके द्वारा भेजा गया लेख हमारी प्रतिष्ठित पत्रिका सुखदा में प्रकाशन के लिए चयनित हुआ है। बधाई! मानदेय राशि का चेक संलग्‍न है। मानसी की खुशी का पारावर नहीं था। कितने ही वर्षों बाद आज उसके हाथों में खुद उसकी कमाई थी...उसकी आंखों से खुशी के आंसू झरने लगे। उसने फटाफट अपना मोबाइल उठाया और टाइप करने लगी, ‘‘शुक्रिया विवेक ! एक ब्रेण्‍ड न्‍यू लाइफ़ के लिए।’’ 

Monday 1 September 2014

Memoirs of a nature kid

I was sitting in the balcony of my house trying to feed my one year old the parantha I had made with ‘extra ghee’ for her. Suddenly, a sparrow came and pecked on the plate. Before I could make out what had happened, it flew away. I once again pegged away at feeding my daughter but the bird’s aerial attack was a reason enough to distract her. I tried to trick her into eating her food by applying her granny’s formula and putting the morsel in her mouth saying ‘Ek nivala haathi ka, ek nivala ghode ka’ but all in vain. Giving myself completely to her whims, I started beholding the Bottlebrush tree right in front of my house on which the sparrow had perched after stealing the parantha and my little daughter was gazing at.

The tree had a nest made of straw, hay, plastic pieces, paper clippings and what not! Three baby sparrows were peeping out of it. Their white-grizzly stomachs were glowing in the pleasant winter sun. Mother sparrow was putting small bites of parantha in their little mouths one by one while the babies, with their glossy bills, were vying with each other as if each of them pleading to the mother, ‘let me be the first’, ‘let me be the first’.  

People living in apartments, especially in metro cities, can only tell how rare this sight is for them. Seeing something as refreshing as this brought smile to my lips. My heart filled with fragrance of old memories when I was a student of class XII and after completion of half-yearly exams I had decided to prepare for annual exams staying at home only. I would love to study sitting in the big veranda and the lush green lawn of my house. I had kept a table and a chair there permanently and would sojourn there till the breeze turned chilly in the evening.

While studying I also kept myself fueling with til laddus, rewaris and groundnuts. One day when I was engrossed in my book, sound of “tut tut” attracted my attention. What I saw was quite amusing. A squirrel was sitting in the plate lying under my table with a groundnut in her hand. It was intriguing enough, so without making any sound, I started watching her. What I saw was totally unanticipated and electrifying. The squirrel first ripped the brown rind of the groundnut, and after removing its pink peel meticulously started to nibble the groundnut. I am sure, she was not enjoying the groundnut any lesser than humans. I was astonished to see the extent to which activities of a squirrel match the humans while snacking on the groundnuts!!! And then it became order of the day. I would deliberately put groundnuts or laddus under my study table and enjoy the spectacle. It seemed as if the squirrel had invited her friends from bird sphere and now the birds relishing this sumptuous feast also included a mynah, a sparrow and a beautiful bird with a red glossy beak. Each of them had a different choice regarding the food served and also a specific style of eating it. I had also put a water bowl in lawn. The birds would not only drink water from it but would also drench themselves in it. With every passing day, they looked least concerned about my presence.     

Sitting in the lawn daylong would make me hear many pleasant sounds every now and then. It included twitter of the mynahs as well as high-pitched squeaks of the parrots. I remember my father would go right straight to the rooftop as soon as he got up in the morning and feed the pigeons. If it was delayed for any reason any day, the pigeons would start pecking on the roof. Their aggression clearly showed their impatience for their first meal of the day. At the same time, it seemed as if the singing parrots sitting on the electricity poles and cables outside the house offered morning prayers to God. 

This reminded me of ‘Mataji’. This is what my family called her on the lines of ‘cow is our mother’. She had a spotty body and beautiful sooted eyes. She kept coming to our house for years. We never knew where did she come from but she would come almost on the same time every day. My mother would cook first chapatti for her in morning.  In utter contradiction to the pigeons coming early morning, she was extremely patient…may be because she was ‘Mataji’. She would moo at the main gate around 2o’clock in afternoon and go away after eating her chapatti. It always remained a surprise for me why she had never consumed the plants in the lawn.
  
I was so lost in my thoughts that couldn’t sense when the sparrow had come back and sat on the railing of the balcony. My little one’s clapping and chuckling brought me back to the present. I, then, picking nature’s clue left the plate on balcony floor and went inside holding my daughter in the lap. This made me think how we fail to live the pleasant moments we stumble on in hustle and bustle of our modern lifestyle. Today, flat culture of metropolitan cities has made the sight of common creatures like birds, cows and parrots rare enough while a decade ago even stray dogs and cows would unknowingly become a part of the family. 

I fear that with the mushrooming of concrete jungles everywhere, these delightful sights will become a part of virtual world and our progeny would see the parrots, mynah and squirrels on ‘Google Images’ only and have to resort to internet to prepare a small write-up on ‘cow’. I wish our age old established relationships with the nature like billi masi and chanda mama don’t become a part of ‘glorious’ past. The onus of connecting our children with nature is on us. Let’s begin by taking baby steps in this direction. The simplest and doable idea is to start putting a water-pot for birds in our balconies and asking our kids to take care of it. Let’s enjoy our weekends with family in open picnic spots along with malls, giving our children an opportunity to have the feel-good moments of life that we still cherish.

(Published in Hindustan Times)

Tuesday 26 August 2014

सतरंगी यादें

गोद में बिटिया और थाली में परांठे की चूरी लिए अभी मैं बालकनी में आकर बैठी ही थी कि कहीं से एक चिड़ि‍या आई और थाली में चोंच मारकर फुर्र हो गई। मैं ज़रा-सा चौंकी...फिर बिटिया को परांठा खिलाने की जुगत में लग गई। लेकिन उसका ध्‍यान भटकाने के लिए तो चिड़ि‍या का यह हवाई हमला ही काफ़ी था। मैंने उसकी दादी जी की तरकीब अपनाते हुए एक निवाला हाथी का, एक निवाला घोड़े का कहते हुए उसके मुँह में परांठे की चूरी डालने की बहुत कोशिश की पर नाकाम रही। हारकर मैं भी बालकनी के ठीक सामने लगे बॉटल-ब्रश के उस पेड़ की ओर देखने लगी जहां चूरी चुराने के बाद चिड़ि‍या जा बैठी थी और अब बिटिया रानी टकटकी लगाए बैठी थी।

टहनी पर एक घोंसला बना था जिसमें से सूखे तिनके और कपड़ों की चिंदियां झांक रही थीं। घोंसले में चिड़ि‍या के तीन नौनिहाल थे जिन्‍हें वह अपनी चोंच में भरी चूरी बारी-बारी से खिला रही थी। उनके सफ़ेद, शफ़्फ़ाफ़ पेट पेड़ की पत्तियों से छनकर आती सर्दी की कुनकुनी धूप में चमक रहे थे और अपनी चिकनी चोंचों से वो चूरी खाने की ऐसी होड़ा-होड़ी में लगे थे मानो हर कोई अपनी माँ से कह रहा हो, पहले मैं’, पहले मैं


दिल्‍ली में दुर्लभ इस मनोहारी दृश्‍य से अधरों पर बरबस ही मुस्‍कान दौड़ गई। मन मानो अचानक पुरानी यादों की खुशबू से भर गया। मुझे याद आ गए वे दिन जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी और दिसंबर के पहले हफ़्ते में अर्धवार्षिक परीक्षाएं खत्‍म होने के बाद मैंने बोर्ड की परीक्षा की तैयारी घर पर ही रहकर करना तय किया था। ड्राइंगरूम के बाहर का बड़ा-सा बरामदा और उसके आगे का लॉन पढ़ने के लिए मेरी पसंदीदा जगह हुआ करते थे। स्‍कूल से छुट्टियां लेने के साथ ही मैंने लॉन में पढ़ने के लिए एक कुर्सी-मेज़ स्‍थायी रूप से रख दिए थे और तड़के जो मैं वहाँ  डेरा डालती तो तब तक वहीं बैठी रहती जब तक शाम को हवा सर्द नहीं हो जाती।

पढ़ाई के साथ-साथ तिल के लड्डू और रेवड़ी-मूँगफलियों का दौर भी चला करता था। एक दिन मैं अपनी किताब में मग्‍न थी कि तभी कुट-कुट की आवाज़ ने मेरा ध्‍यान खींचा। क्‍या देखती हूं कि मेरी मेज़ के नीचे रखी मूँग‍फलियों की तश्‍तरी में एक गिलहरी बैठी है और उसके हाथ में एक मूँगफली है। नज़ारा दिलचस्‍प था, इसलिए मैं बिना आहट किए उसकी हरकतें देखने लगी। आगे जो मैंने देखा वो दिलचस्‍प होने के साथ-साथ हैरान करने वाला भी था। गिलहरी ने पहले अपने हाथों से मूँगफली का पीला छिलका निकाला, फिर बड़ी सफ़ाई से उसका लाल छिलका भी हटाया और उसके बाद बड़े मज़े से मूँगफली को कुतरने लगी। गिलहरी की आंगिक चेष्‍टाएं इंसानों से इस कदर मेल खाती हैं, इसका मुझे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। फिर तो यह रोज़ का क्रम बन गया। मैं जानबूझकर मेज़ के नीचे तश्‍तरी में कभी मूँगफली तो कभी लड्डू रख देती और तमाशा देखती। गिलहरी ने शायद पक्षी-जगत के अपने मित्रों को भी न्‍यौता दे दिया था और अब माल उड़ाने वालों में मैना, गौरेया और चमकदार लाल चोंच वाली एक चिड़ि‍या भी शामिल हो गई थी। थाली में रखे सामान को लेकर हर किसी की अपनी पसंद थी और उसे खाने का अपना अलग अंदाज़ भी। मैंने लॉन में मिट्टी का परिंडा भी रख दिया था और खाने के बाद ये चिड़ि‍यां अपनी चोंच में बूंद-बूंद पानी लेकर उसे पीती भी और खुद को भिगोतीं भी। कुछ दिन बीतते-बीतते तो उन्‍हें मेरी उपस्थिति से फ़र्क पड़ना ही बंद हो गया था।
    
दिनभर लॉन में बैठे रहने से गाहे-बगाहे कानों में कई मधुर ध्‍वनियाँ पड़ ही जाती थीं। कभी चिड़ि‍यों की चींचीं सुनाई देती तो कभी सुग्‍गों की कूहूँ-कूहूँ। मुझे ध्‍यान है कि भोर होते ही पिताजी का पहला काम घर के आँगन, छत और चारदीवारी में बाजरा डालने का होता था। कभी उठने में देरी हो जाती तो कबूतर छत पर चोंच मारने लगते, उनके चोंच मारने की आक्रामकता से साफ़ पता चलता था कि वे अपने नाश्‍ते के लिए बेसब्र हो रहे हैं। घर के बाहर लगे बिजली के तार पर कतार में बैठे तोते कोरस में न जाने कौन-सा लोकगीत गाते थे। नर तोतों के गले में पड़ी लाल कंठियों की सादगी मिश्रित खूबसूरती नौलखों को भी मात देती थीं।  

मन में पुरानी यादों का इंद्रधनुष उभरा तो बरबस माताजी का भी स्‍मरण हो आया। गाय हमारी माता है की तर्ज पर हमारा पूरा परिवार उन्‍हें इसी नाम से बुलाता था। वे कुछ चितकबरे रंग की थीं और वर्षों तक हमारे घर आती रहीं। ये तो पता नहीं कि वो कहाँ से आती थी पर उनके आने का समय ज़रूर निश्चित था। माँ सुबह खाना बनाना शुरू करने पर पहली रोटी उनके नाम की बनातीं। सुबह-सवेरे नाशते के लिए आने वाले कबूतरों से उलट माताजी में अत्‍यंत धैर्य था, शायद वो माताजी थीं इसलिए। दिन में करीब 2 बजे वो घर के मेनगेट पर खड़ी होकर रंभाती और अपनी रोटी लेकर चुपचाप वहाँ से चली जाती। हैरानी मुझे इस बात की थी कि उन्‍होंने कभी चारदीवारी में लगे किसी पौधे को उदरस्‍थ नहीं किया।     

अचानक बिटिया की ताली की आवाज़ से मैं वर्तमान में लौटी। एक बार फिर चिड़ि‍या बालकनी की रेलिंग पर बैठी थी। प्रकृति का इशारा समझ मैं चूरी की थाली बालकनी में ही छोड़ बिटिया को लेकर अंदर चली आई और सोचने लगी कि रोज़मर्रा के जीवन में कितने ही सुखद क्षण अनायास ही हमारी झोली में आ गिरते हैं पर जीवन की आपाधापी में हम उन्‍हें महसूस ही नहीं कर पाते। महानगरों के फ्लैट कल्‍चर में तो चिड़ि‍या, तोता, गाय जैसे उन आम पशु-पक्षियों का नज़ारा भी दुर्लभ होता जा रहा है जो अन्‍य शहरों में घर-परिवार का हिस्‍सा होते हैं।

मुझे डर है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि आने वाली पुश्‍तें तोता, मैना और गिलहरी जैसे पशु-पक्षियों को गूगल इमेजेज़ पर ही देख पाएं और गाय पर पाँच पंक्तियाँ लिखने के लिए भी उसे इंटरनेट की मदद की ज़रूरत पड़े। गाय माता, बिल्‍ली मौसी और चंदा मामा किस्‍से-कहानियों का ही हिस्‍सा न बनकर रह जाएँ। अपने बच्‍चों को प्रकृति से जोड़ने की सीधी ज़ि‍म्‍मेदारी हमारी है। आइए, अपने घर के बाहर पशु-पक्षियों के पानी पीने का बर्तन रखकर शुरुआत करें। और उसमें रोज़ नया पानी भरने की ज़ि‍म्‍मेदारी अपने बच्‍चों को दें। मॉल के साथ-साथ बच्‍चों को खुले पिकनिक स्‍पॉट्स पर भी ले जाएं ताकि वो भी अपने हिस्‍से के उन खुशनुमा लम्‍हों को ज़रूर जी सकें जिन्‍हें आप-हम अब तक अपनी यादों की पोटली में संजोए हैं।   

Wednesday 20 August 2014

Full of beans...

My mother quotes a saying quite often, “the way to a man’s heart is through his stomach’’ but first, academics and then profession kept me too busy to try my hand at cooking. Then, there was a year long hiatus from office job as I shifted to Delhi from Jaipur post marriage. I had ample time to pursue any activity of my choice. Mumma’s (as I call my mother) words reverberated and I decided to develop my culinary skills. What I took up as a pastime activity soon seemed quite fascinating to me and I tried many Indian recipes at home. One dish that my husband enjoys a lot, till date, is from Karnataka cuisine, BEANS FOOGATH (after all winning his heart was the hidden agenda behind undertaking cooking after marriage!!!). And yes, this mildly spiced recipe is my favorite also as it can be cooked with zero oil and (of course, with minimum effort). Have a look at the succulent recipe:  

'BEANS FOOGATH' COOKED BY SELF PROCLAIMED CHEF 'MEETU' 
Main Ingredients

200 gram french beans
1 medium sized onion, chopped 
8-10 curry leaves
½ teaspoon mustard seeds
1 tbsp grated coconut
Salt as per taste
1 tsp lemon juice  
½ cup water

Method

  1. Roast mustard seeds in a heated pan. Add curry leaves and chopped onions to it. Stir on low heat for 2 minutes. Don’t brown the onions.
  2. Add French beans, salt and half cup water. Cover the pan with a plate and pour some water on the plate.
  3. Cook it for 8-10 minutes or till the beans are cooked. But they should still remain a little crunchy.
  4. Add lemon juice and grated coconut.
  5. Mix well and serve hot.
P.S. – French beans are a rich source of vitamins, protein, fibers and omega-3 acids and this steamed recipe can also contribute greatly in cutting down your extra flab! 

Saturday 16 August 2014

गलती किसकी?

कुछ समय पहले एक खबर पढ़ी थी कि टीचर की अश्‍लील हरकत और पंचायत के मामले को रफ़ा-दफ़ा करने से परेशान होकर एक किशोरी ने आत्महत्या कर ली, यानी जाने-अनजाने उसे उस जुर्म की सजा मिली जो उसने किया ही नहीं था। यह शर्मिंदगी की बात ही है कि आए दिन हमारे अखबार यौन-अपराधों से जुड़ी खबरों से भरे पड़े रहते हैं, वहीं टीवी चैनलों पर भी ऐसे दर्दनाक किस्सों की भरमार रहती है। हर बार ऐसे मामले मन में एक ही सवाल छोड़ जाते हैं कि हमारे समाज का यह कैसा दोगलापन है जो यौन शोषण के हालात पैदा करता है, पुरुष को बच निकलने की गुंजाइश भी देता है, लेकिन पीड़ित स्त्री को सिर उठाकर जीने का हक तक नहीं देता।                                   
''गलती किसकी''
कोई शक नहीं कि पूरी तस्वीर ही अफ़सोसनाक है, पर इस पूरे मामले में जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है वो ये कि यहां लड़की के साथ अश्‍लील हरकत की गई थी, उसका बलात्कार नहीं हुआ था, फिर भी उसने अपनी जान ले ली। बेशक, छेड़छाड़ या अश्‍लील हरकत को अपराध के पैमाने पर बलात्कार से कम नहीं आंका जा सकता, पर आखिर हमने यौन अपराधों को इतना बड़ा मान ही क्यों लिया है कि उनके आगे महिलाओं का वजूद ही बौना हो गया, उनकी जान की कीमत ही शून्य हो गई? सवाल जो सारे शोर में कहीं खो गया वो ये कि किशोरी ने आत्महत्या टीचर से मिली शारीरिक प्रताड़ना के चलते की या समाज की खा जाने वाली नजरें और मामले को दबाने की कोशिश इसकी वजह बने। घटना के कई दिन बाद ऐसा कदम उठाना तो यही संकेत देता है कि दूसरी वजह ही ज्यादा बलवती रही होगी। पर-पुरुष का स्पर्श भी स्त्री के लिए पाप है जैसी जाने कितनी ही सीखों का पुलिंदा उस ग्‍यारह बरस की किशोरी के मन में गहरे दबा होगा जिसने उसे इतना बड़ा कदम उठाने को मजबूर किया।
बेशक, यौन शोषण या इस कड़ी में बलात्कार एक गंभीर अपराध है, पर इसलिए नहीं कि यह स्त्री के शील से जुड़ा है, बल्कि इसलिए कि ये एक स्वतंत्र अस्तित्व वाले जीते-जागते प्राणी की दैहिक स्वतंत्रता का खुला उल्लंघन है। उपर्युक्त मामले में ऐसा नहीं था कि किशोरी के माता-पिता ने उसका साथ दिया हो, लेकिन फिर भी उसने खुद को जीने लायक नहीं समझा। शायद इसलिए कि हमारे तथाकथित सभ्य समाज में यौन-अपराधों को लेकर जैसी हाय-तौबा मचती है, वैसी शायद कहीं नहीं। ऐसे आदिवासी समाज भी हैं जहां बलात्कार के मामलों की संख्या हमारे तथाकथित सभ्य समाजों की तुलना में बहुत कम है, फिर अगर वहां कोई लड़की ऐसी वारदात का शिकार हो भी जाए तो आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होती, लेकिन हमारे यहां शायद ही कोई लड़की होगी जो यौन हिंसा का शिकार होने की बजाय मर जाना पसंद नहीं करेगी। खुदा-ना-खास्ता ऐसी अनहोनी हो जाए तो ऐसा ही करती भी हैं। इस तरह यह मसला केवल स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि किसी स्त्री के जीने के बुनियादी अधिकार से भी जुड़ा है।
जब तक हम केवल ऐसी घटनाओं को रोकने, बल्कि उनके होने के लिए भी खुद को तैयार नहीं कर लेते, तब तक ऐसे ही मासूम जानें जाती रहेंगी। समझ नहीं आता कि आखिर दुर्घटना घट जाने के बाद ही हम अपनी बेटियों के आंसू क्यों पोंछते हैं? क्यों उन्हें शुरू से ही जिस्मानी और ज़ेहनी तौर पर इतना मज़बूत नहीं बनाते कि ऐसी नौबत आने पर जमकर प्रतिरोध कर सकें। कम-से-कम अन्याय का शिकार होने पर आत्मग्लानि तो पालें। लेकिन उस समाज से ऐसी उम्मीद कैसे की जा सकती है, जहां किसी लड़की के समाज में सम्मान की कसौटी ही उसका कौमार्य हो, जहां अदालतों में रस ले-लेके उसके साथ हुए दैहिक शोषण का मामला परोसा जाता हो और ऐसे मामलों की सुनवाई में सबसे ज्यादा भीड़ जुटती हो।
बहरहाल, इस प्रसंग से कुछ वक्‍त पहले तक टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन का ख्याल हो आया जहां गर्भनिरोधक का विज्ञापन आते ही बच्चों के साथ टीवी देख रहे माता-पिता असहज हो उठते हैं और बच्चों को किसी काम के बहाने कमरे से बाहर भेज देते हैं। जब हम अपने बच्चों के साथ बैठकर ऐसे विज्ञापन तक देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकते तो भला कैसे इस विषय पर उनके साथ चर्चा कर सकेंगे? कैसे अपनी बेटियों के मन में ये बात बिठा पाएंगे कि वे सिर्फ हाड़-मांस का पुतला होकर तन-मन के जोड़ से बना एक व्यक्तित्व हैं? कैसे अपने बेटों के मन में नारी-शरीर के लिए सम्मान जगा पाएंगे? अगर हम यूं ही चुप्पी धरे रहे तो विकल्प क्या है? शायद कुछ नहीं! तब शायद हमें उस जोखिम के साथ ही जीना होगा जब या तो किसी बेटी के यौन हिंसा के शिकार हो फांसी लगाने की खबर कानों में पड़ेगी या फिर किसी बेटे के ऐसे कुकृत्य को अंजाम देने के बाद हमारा सिर खुद-ब-खुद शर्म से झुक जाएगा।
(जनसत्ता में प्रकाशित)