‘‘मत भूलो कि धरती तुम्हारे पैरों को महसूस करके खुश होती है और हवा तुम्हारे बालों से खेलना चाहती है।’’ – ख़लील ज़िब्रान
प्रकृति के साथ मनुष्य का संबंध बहुत पुराना और गहरा है। मानवजाति ने अपनी आँखें प्रकृति की गोद में खोलीं और उसी के आँचल में वह फलती-फूलती रही है। विज्ञान प्रमाणित करता है कि आज से अरबों वर्ष पहले जीवन का आदि रूप सागरों में पनपा जिसमें सूर्य की रश्मियों ने जीवन का संचार किया। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने प्राकृतिक शक्तियों को देवस्वरूप माना। वैदिक ऋषि कामना करते हैं, ‘सूर्यस्य संदृशे मा युयोथा:’ अर्थात् जीवनदायी सूर्य से कभी हमारा वियोग न हो। सूर्य की किरणों से ऊर्जा लेकर ही वनस्पतियां अपना भोजन तैयार करती हैं और इन्हीं वनस्पतियों पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अन्य जीव-जंतु तथा मानव जीवन आश्रित है।
वेदों में कहा गया है कि वायु ही प्राण बनकर शरीर में वास करती है। भारतीय संस्कृति में जल की वरुण देव के रूप में स्तुति की गई है। इतिहास साक्षी है कि हमारी आदि संस्कृतियां नदियों के किनारे ही पनपीं हैं, चाहे वह मैसोपोटामिया की सभ्यता हो, नील नदी की सभ्यता हो या फिर सिंधु घाटी या ह्वांग हो नदी के किनारे उपजी चीन की सभ्यता। मत्स्य पुराण में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान माना गया है। श्रीमद्भगवतगीता में कृष्ण कहते हैं, ‘वृक्षों में मैं पीपल हूं’।
प्रकृति के इसी जगत-पालक रूप के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अथर्ववेद में हम शपथ लेते हैं कि, ‘‘हे धरती माँ! जो कुछ भी तुमसे लूंगा, वह उतना ही होगा जितना तू पुन: पैदा कर सके। तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा।’’ लेकिन आज हम अपनी शपथ भूलकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट पर उतर आए हैं। प्रकृति हमारी आवश्यकताएं आज भी पूरी कर रही है लेकिन हम उसे अपनी अतिभौतिकवादिता की भेंट चढ़ा रहे हैं जिसके दुष्परिणाम अब हमारे सामने हैं। जलवायु परिवर्तन धरती के लिए भीषण खतरा बन चुका है। आंकड़े बताते हैं कि 1850 में तापमान को रिकॉर्ड करने की शुरुआत के बाद से पिछले तीन साल सबसे अधिक गर्म रहे हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं, समुद्री जल स्तर में लगातार वृद्धि हो रही है।
हमने प्रकृति की गोद से निकलकर मशीनों की शरण ली और अब सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता औद्योगीकरण हमारे पर्यावरण को निगलता जा रहा है। प्रमाणित हो चुका है कि बिजलीघरों, फैक्ट्रियों तथा वाहनों में जीवाश्म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए उत्तरदायी हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है, ‘‘सन् 2020 तक भारत विश्व में एक ऐसा देश होगा जिसके हवा, पानी, ज़मीन और वनों पर औद्योगीकरण का सबसे ज्यादा दबाव होगा, वहां पर्यावरण बुरी तरह बिगड़ जाएगा, प्राकृतिक संसाधनों की सांसें टूटने लगेंगी और उसके लिए इस विकास की कीमत को चुकाना टेढ़ी खीर होगी’’। बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण का प्रभाव अर्थव्यवस्था और विकास पर भी पड़ेगा। प्रमुख खाद्यों के उत्पादन में कमी आएगी और कुपोषण बढ़ेगा। वर्ष 2050 तक भारत में सूखे के कारण गेहूँ के उत्पादन में 50 प्रतिशत तक कमी आने की आशंका है।
आज विश्व की 92% प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में सांस ले रही है। वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का संकेन्द्रण पहले के मुकाबले 30 प्रतिशत ज्यादा हुआ है। ग्रीनपीस इण्डिया की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ वायु प्रदूषण से भारत में हर साल 12 लाख जानें चली जाती हैं। भारत के 168 शहरों में हाल ही में किए ग्रीनपीस सर्वे के अनुसार इनमें से एक भी शहर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित वायु गुणवत्ता मानकों पर खरा नहीं उतरा। बोस्टन में हाल ही में रिलीज़ स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में ओज़ोन प्रदूषण के कारण होने वाली असामयिक मौतों में भारत प्रथम स्थान पर है और इसके कारण दुनियाभर में होने वाली कुल मौतों में से आधी मौतें भारत और चीन में होती हैं।
पानी सिर के पार जा चुका है। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि बच्चों के घर में कैद होकर टी.वी.-मोबाइल आदि देखते रहने से उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित हो रहा है। डॉ. मार्क ट्रेम्बले, ओटावा के शोध के अनुसार इस सदी के बच्चे 1980 के दशक के बच्चों के मुकाबले अधिक मोटे, वज़नी और कमज़ोर हैं।
भारतीय दर्शन में संपूर्ण सृष्टि की रचना पंचमहाभूतों अर्थात् धरती, जल, अग्नि, आकाश और वायु से मानी गई है। यह विडम्बना ही है कि हम जिन पंचतत्त्वों से बने हैं, उन्हीं के विनाश पर आमदा हैं। आज की बेलगाम भौतिक ज़िन्दगी में हमने न तो पानी को साफ़ छोड़ा है और न ही हवा को शुद्ध। धरती को तो हम वृक्ष काटकर और रसायनों-कृत्रिम उर्वरकों के प्रयोग से लगातार बांझ बना ही रहे हैं। हम भूल गए हैं कि खेती और पशुपालन द्वारा ही आदिमानव के खानाबदोश जीवन का अंत हुआ था। आज हम अपने इन्हीं पशुमित्रों को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बेदर्दी से मार रहे हैं। जीव-जन्तुओं की कितनी ही प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं या होने के कगार पर हैं।
सरकारें विभिन्न नियम-कानून बनाकर और पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस आदि आयोजनों द्वारा इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने का प्रयास कर रही है पर समय आ गया है कि हम व्यक्तिगत स्तर पर पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझें। कहीं ऐसा न हो कि टी.वी. और मोबाइल में उलझी हमारी आने वाली पुश्तों को तोता, मैना और गिलहरी भी ‘गूगल इमेजेज़’ पर ही देखने को मिलें और गाय पर पाँच पंक्तियाँ लिखने के लिए भी उसे इंटरनेट का सहारा लेना पड़े। गाय माता, बिल्ली मौसी और चंदा मामा कहीं किस्से-कहानियों का हिस्सा बनकर ही न रह जाएं। आइए, अपने आँगन में पक्षियों के लिए पानी का बर्तन रखकर प्रकृति से जुड़ने की शुरुआत करें और उसमें रोज़ नया पानी भरने की ज़िम्मेदारी अपने बच्चों को सौंपें।
और अंत में, जैसा कि थियोडोर रोएटके ने एक दफ़ा कहा था, ‘‘सभी फूल अपनी जड़ों की गहराइयों में प्रकाश रखते हैं,’’ तो आइए प्रकृति से जुड़कर उस प्रकाश का साक्षात् करें, उसे आत्मसात् करें और अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य उज्ज्वल बनाएं।
*विश्व पर्यावरण दिवस, 2017 की थीम 'कनेक्टिंग पीपल टू नेचर' पर...
*विश्व पर्यावरण दिवस, 2017 की थीम 'कनेक्टिंग पीपल टू नेचर' पर...
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