जाड़ों की सर्द सुबह
को
आसमान की गोद में दुबके
सूरज ने
सरकाकर जब बादलों की
रज़ाई
धरती पर डाली एक
नज़र अलसाई
तब चाहरदीवारी के
गुलमोहर से छनकर
आंगन में उतर आई कुनकुनी
धूप
निपटाकर झटपट चूल्हा-चौका
गृह बनिताओं ने
जमाया आंगन में डेरा
कोई फैलाती दालान
में पापड़-बड़ियां
कोई लिए बैठी है पालक-मेथी-बथुआ
एक नवोढ़ा गुनगुना
रही है अस्फुट-सा कोई गीत
अहाते में अचार-मुरब्बों
को दिखाती हुई धूप
अम्मा की तो लग गई
लॉटरी
सिकुड़ी बैठी थी लिहाफ़
में बनकर गठरी
अब धूप में बैठ पहले
चुटिया गुंथवाएंगी
फिर मुनिया के अधूरे
स्वेटर के फंदे चढ़ाएंगी
खिल उठता अम्मा का ठण्ड
से ज़र्द चेहरा
जब-जब अपनी जादुई
छड़ी घुमाती धूप
बूढ़े माली काका में
भी आई कैसी गज़ब की फुर्ती
अब बस उनका बगीचा, खाद-बीज और खुरपी
पानी का पाइप जो था
लॉन की छाती पर सुस्त पड़ा
मोटी-मोटी जलधाराओं
से धो रहा है पत्तों का मुखड़ा
कुम्हलाए फूल भी
जैसे फिर जी उठते
जब उनकी पंखुड़ियों
को सहलाती धूप
बिल्लू-बंटी-बब्ली
को तो देखो क्या मस्ती छाई है
फेंककर एक तरफ
टोपी-मफलर छत की दौड़ लगाई है
टेरिस के एक कोने
में रखी पतंग और डोर
पड़े-पड़े हो रही थीं
न जाने कब से बोर
लगा रहेगा आसमान में
रंग-बिरंगी पतंगों का मेला
जब तक छत पर तिरपाल
बिछाए रहेगी धूप
होने लगा सांझ का
झुटपुटा
आंगन भी लगने लगा
बुझा-बुझा
पापड़-बड़ियां और
अचार-मुरब्बे
सब-के-सब घर के भीतर
खिसके
इधर उतर रही अम्बर
से संध्या-सुंदरी
उधर नीम-अंधेरे में
गड्डमड्ड हो रही धूप
रसोई में पक रही
है ताज़ा मेथी
अम्मा बैठी मंदिर
में बांच रही है अपनी पोथी
खेलकूद के बाद अब
बच्चे भी कर रहे हैं पढ़ाई
खत्म हुई हरी-पीली
पतंगों की लड़ाई
जड़-चेतन के
जीवन को कर यूं स्पंदित
समा गई सूरज की
बांहों में थकी-थकी सी धूप