अपने नाम से मेरा असल वास्ता स्कूल
में दाखिला लेने के बाद ही पड़ा वरना तो उसका इस्तेमाल मुझे पुकारने के लिए घर के
लोग ही ज़्यादा किया करते थे। उस पर भी, हर हिन्दुस्तानी
बच्चे की तरह, मेरे भी लाड़-प्यार में पगे अनेकों नाम थे। लेकिन अब
घर की चहारदीवारी से बाहर मेरा औपचारिक नाम ही मेरी पहचान बनने जा रहा था।
मेरी क्लास में लड़कियों के नाम
कुछ यूं थे: नेहा, शिखा,
दीपिका वगैरह…वगैरह। वर्णों के लिहाज़ से व्यवस्थित और अर्थ के
लिहाज़ से सार्थक लगने वाले इन नामों के बीच मुझे अपना नाम ‘मीतू’ कुछ अटपटा-सा
लगता था क्योंकि नए शिक्षक-शिक्षिकाएं और सहपाठी अक्सर मुझे ‘नीतू’
पुकारने लगते थे। छुटपन में मैं इसे उनका कर्णदोष मानती रही पर कुछ बड़ी हुई तो लगने
लगा कि हो-न-हो यह मेरे ही नाम का ध्वनिदोष है, अन्यथा इतने
लोग भला सुनने में एक-सी गलती कैसे करते?
मेरा नाम अजीब ही नहीं, शायद
अधूरा भी है, इसका अहसास मुझे तब हुआ जब कुछ शिक्षिकाएं मेरा नाम
जानने के बावजूद मुझे ‘मीता’ बुलाने लगीं। गनीमत
यह रही कि मेरा नाम छोटा था, इसलिए लोगों को पुकारने में ज़्यादा
समस्या नहीं आती थी और एक-आध बार ‘नीतू’ या ‘मीता’ पुकारने
के बाद वे मुझे ‘मीतू’ के रूप में
मान्यता दे देते थे। असल समस्या मेरे कुछ बड़े हो जाने के बाद तब आई जब एक दिन
मैं एक बुद्धिजीवी से टकरा गई और उन्होंने मेरे नाम का अर्थ पूछ डाला। अपनी सीमित
बुद्धि से मैंने इसे ‘मीत’ अर्थात् ‘प्रेमी’ से
जोड़कर उनकी तो शायद तसल्ली कर दी पर अब मैं अपने नाम को लेकर और भी ज़्यादा
बेचैन हो गई।
इधर,
भाषाओं में दिलचस्पी बढ़नी शुरू हो गई थी। हिंदी से लेकर संस्कृत और संस्कृत से
लेकर अंग्रेज़ी तक मेरे पसंदीदा विषय बनते जा रहे थे। कोई भी शब्द सुनती तो सबसे
पहले दिमाग में उसका संधि-विच्छेद आता या फिर मैं उसकी व्युत्पत्ति को समझने की
कोशिश में लग जाती। कोई भी नाम कान में पड़ता तो मन में सबसे पहला विचार उसकी
सार्थकता-निरर्थकता का आता। और तब मैंने जाना कि हिंदीभाषी समाज में ऐसे अनेकों
नाम बिखरे पड़े हैं जो पुकारे जाने पर अपनी अलग ही छटा बिखेरते हैं। जैसे, ‘मीनाक्षी’ नाम
सुनकर मछली जैसे आकार की सुंदर आंखों वाली लड़की की छवि मन में उभरती है तो ‘तन्वी’ नाम सुनते
ही एक सुडौल कन्या का अक्स मन में उतर जाता है। जहां ‘विक्रम’ सुनकर
मन बरबस ही किसी पराक्रमी व्यक्ति की कल्पना करने लगता है, वहीं ‘प्रखर’ नाम
से ही किसी ओजस्वी-मेधावी व्यक्ति का ध्यान हो आता है। मैंने अनुभव किया कि शब्द
भी चित्र बनाते हैं। थोड़ा-बहुत पढ़ना शुरू करने पर यह भी जाना कि किस प्रकार
साहित्य में पात्रों के नाम उनके चरित्र के अनुरूप रखे जाते हैं। फिर चाहे वो
देवकीनंदन खत्री के तिलस्मी उपन्यास ‘चंद्रकांता’ की
असीम सुंदरी ‘चंद्रकांता’ हो या
घिसट-घिसट कर संसार का प्रथम अनुभव प्राप्त करने वाला महादेवी वर्मा का ‘घीसा’। इस
तरह से नाम की संवेदनशीलता मेरे मन में गहरे समाती गई।
मैंने ठान लिया था कि जो भी हो, अपना
नाम बदलकर ही रहूंगी। मैंने मन-ही-मन अनेक सुंदर और सार्थक नामों की सूची बना डाली
थी। अब बस उनमें से कोई एक चुनकर पिताजी को बताना था और रिकॉर्ड्स में अपना नाम
बदलवाना था। आखिरकार, मैंने एक अदद साहित्यिक लगने वाले नाम
का चुनाव किया और पिताजी के सामने अपना प्रस्ताव रख दिया। लेकिन मेरी अपेक्षा के
बिल्कुल उलट उन्होंने इसके लिए साफ़ इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि यह सब इतना
आसान काम नहीं, इसकी अपनी कानूनी पेचीदगियां हैं। उन्होंने मुझे
बताया कि कैसे मेरे जन्म से पहले ही उन्होंने मेरा नाम तय कर लिया था। सोच लिया
था कि अगर लड़की हुई तो उसका नाम वे अपनी पहली बेटी यानी मेरी अग्रजा ‘ऋतु’ से
मिलता-जुलता रखेंगे। मेरी हर दलील खाली गई। जब रो-बिसूरकर भी कुछ नहीं हुआ तो
मैंने नाम बदलने की ज़िद छोड़ दी। लेकिन अखबारों में दिखने वाले विज्ञापन ‘मैं
फलां फलां एतद्द्वारा यह घोषणा करती हूं कि शादी के बाद मुझे फलां फलां नाम से
जाना और पुकारा जाए’ अब भी मेरी आखिरी आस बने हुए थे।
आखिर ईश्वर ने मेरी सुन ली।
मेरी शादी एक ऐसे परिवार में तय हुई जहां शादी के बाद वधू का नाम बदले जाने की
परंपरा थी। लेकिन शादी की दहलीज़ पर खड़ी लड़की (कुछ हद तक शायद लड़का भी) ही बता
सकती है कि जीवन के इस नए चरण को लेकर उसका मन कितनी ही आशाओं,
आकांक्षाओं और आशंकाओं से घिरा रहता है। इस सबके बीच नाम का सवाल बहुत पीछे छूट ही
गया था कि एक दिन पता चला कि ससुराल पक्ष में मेरे नए नाम के लिए विकल्पों पर
विचार चल रहा है। मुझसे भी मेरी राय और पसंद पूछी गई।
मैंने हर नाम विकल्प से खुद को जोड़कर देखा लेकिन हर बार एक अजनबीपन का एहसास हुआ। अचानक ही लगने लगा कि कोई मेरी पहचान में सेंधमारी कर रहा है। जैसे, मैं अपनी पहचान त्यागकर किसी और की पहचान उधार ले रही हूं। ‘मीतू’ नाम भले ही मुझे कम पसंद हो लेकिन यह मेरा अपना था जिसने जन्म से लेकर आज तक मुझे मेरे अस्तित्व का एहसास करवाया था। मुझे अब तक मिले प्रशस्ति-पत्र, ढेरों लेख जिन पर मेरा नाम अंकित था, अचानक ही मेरी आंखों के आगे तैर गए। मैंने कल्पना करने लगी कि अगर मेरे नए नाते-रिश्तेदार मुझे किसी और नाम से पुकारेंगे तो क्या मैं उनके प्रेम और स्नेह में वही ऊष्मा महसूस कर पाऊंगी जो मैं आज तक अपने मायके में करती आई हूं और जिसे मैं ससुराल धरोहर के रूप में ले जाना चाहती हूं। मेरा नाम मेरे माता-पिता के प्यार की वो अनमोल सौगात थी जो उन्होंने मुझे जन्म के साथ ही दी थी और उनके दिए हर भौतिक उपहार से बढ़कर आजीवन मेरे साथ रहने वाली थी। अचानक ही मैंने महसूस किया कि अपना अजीब-अधूरा नाम मुझे बहुत प्यारा था।
शुक्र है मुझे अपना नाम बनाए या बचाए रखने के लिए कोई
ज़द्दोज़हद नहीं करनी पड़ी। मैं खुद को खुशकिस्मत ही मानूंगी कि मेरे भावी परिवार ने मेरे निर्णय का पूरा सम्मान किया और मेरी खुशी को प्राथमिकता देते हुए यही कहा कि नाम
में क्या रखा है? हालांकि, मैं बहुत अच्छी
तरह समझ चुकी थी कि ‘नाम में क्या रखा है?’