गोद में बिटिया और थाली में परांठे की चूरी लिए अभी
मैं बालकनी में आकर बैठी ही थी कि कहीं से एक चिड़िया आई और थाली में चोंच मारकर
फुर्र हो गई। मैं ज़रा-सा चौंकी...फिर बिटिया को परांठा खिलाने की जुगत में लग गई।
लेकिन उसका ध्यान भटकाने के लिए तो चिड़िया का यह हवाई हमला ही काफ़ी था। मैंने
उसकी दादी जी की तरकीब अपनाते हुए ‘एक निवाला हाथी का, एक निवाला घोड़े का’ कहते हुए उसके मुँह में
परांठे की चूरी डालने की बहुत कोशिश की पर नाकाम रही। हारकर मैं भी बालकनी के ठीक सामने
लगे बॉटल-ब्रश के उस पेड़ की ओर देखने लगी जहां चूरी चुराने के बाद चिड़िया जा
बैठी थी और अब बिटिया रानी टकटकी लगाए बैठी थी।
टहनी पर एक घोंसला बना था जिसमें से सूखे तिनके और
कपड़ों की चिंदियां झांक रही थीं। घोंसले में चिड़िया के तीन नौनिहाल थे जिन्हें
वह अपनी चोंच में भरी चूरी बारी-बारी से खिला रही थी। उनके सफ़ेद, शफ़्फ़ाफ़ पेट पेड़ की पत्तियों से छनकर आती सर्दी की कुनकुनी
धूप में चमक रहे थे और अपनी चिकनी चोंचों से वो चूरी खाने की ऐसी होड़ा-होड़ी में
लगे थे मानो हर कोई अपनी माँ से कह रहा हो, ‘पहले मैं’, ‘पहले मैं’।
दिल्ली में दुर्लभ इस मनोहारी दृश्य से अधरों पर
बरबस ही मुस्कान दौड़ गई। मन मानो अचानक पुरानी यादों की खुशबू से भर गया। मुझे
याद आ गए वे दिन जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी और दिसंबर के पहले हफ़्ते में
अर्धवार्षिक परीक्षाएं खत्म होने के बाद मैंने बोर्ड की परीक्षा की तैयारी घर पर
ही रहकर करना तय किया था। ड्राइंगरूम के बाहर का बड़ा-सा बरामदा और उसके आगे का
लॉन पढ़ने के लिए मेरी पसंदीदा जगह हुआ करते थे। स्कूल से छुट्टियां लेने के साथ
ही मैंने लॉन में पढ़ने के लिए एक कुर्सी-मेज़ स्थायी रूप से रख दिए थे और तड़के
जो मैं वहाँ डेरा डालती तो तब तक वहीं
बैठी रहती जब तक शाम को हवा सर्द नहीं हो जाती।
पढ़ाई के साथ-साथ तिल के लड्डू और रेवड़ी-मूँगफलियों का
दौर भी चला करता था। एक दिन मैं अपनी किताब में मग्न थी कि तभी कुट-कुट की आवाज़
ने मेरा ध्यान खींचा। क्या देखती हूं कि मेरी मेज़ के नीचे रखी मूँगफलियों की
तश्तरी में एक गिलहरी बैठी है और उसके हाथ में एक मूँगफली है। नज़ारा दिलचस्प था, इसलिए मैं बिना आहट किए उसकी हरकतें देखने लगी। आगे जो मैंने
देखा वो दिलचस्प होने के साथ-साथ हैरान करने वाला भी था। गिलहरी ने पहले अपने हाथों
से मूँगफली का पीला छिलका निकाला, फिर बड़ी सफ़ाई से उसका लाल
छिलका भी हटाया और उसके बाद बड़े मज़े से मूँगफली को कुतरने लगी। गिलहरी की आंगिक
चेष्टाएं इंसानों से इस कदर मेल खाती हैं, इसका मुझे ज़रा भी अंदाज़ा
नहीं था। फिर तो यह रोज़ का क्रम बन गया। मैं जानबूझकर मेज़ के नीचे तश्तरी में
कभी मूँगफली तो कभी लड्डू रख देती और तमाशा देखती। गिलहरी ने शायद पक्षी-जगत के
अपने मित्रों को भी न्यौता दे दिया था और अब माल उड़ाने वालों में मैना, गौरेया और चमकदार लाल चोंच वाली एक चिड़िया भी शामिल हो गई
थी। थाली में रखे सामान को लेकर हर किसी की अपनी पसंद थी और उसे खाने का अपना अलग
अंदाज़ भी। मैंने लॉन में मिट्टी का परिंडा भी रख दिया था और खाने के बाद ये चिड़ियां
अपनी चोंच में बूंद-बूंद पानी लेकर उसे पीती भी और खुद को भिगोतीं भी। कुछ दिन
बीतते-बीतते तो उन्हें मेरी उपस्थिति से फ़र्क पड़ना ही बंद हो गया था।
दिनभर लॉन में बैठे रहने से गाहे-बगाहे कानों में कई
मधुर ध्वनियाँ पड़ ही जाती थीं। कभी चिड़ियों की चींचीं सुनाई देती तो कभी सुग्गों
की कूहूँ-कूहूँ। मुझे ध्यान है कि भोर होते ही पिताजी का पहला काम घर के आँगन, छत और चारदीवारी में बाजरा डालने का होता था। कभी उठने में
देरी हो जाती तो कबूतर छत पर चोंच मारने लगते, उनके चोंच मारने की
आक्रामकता से साफ़ पता चलता था कि वे अपने ‘नाश्ते’ के लिए बेसब्र हो रहे हैं। घर के बाहर लगे बिजली के तार पर
कतार में बैठे तोते कोरस में न जाने कौन-सा लोकगीत गाते थे। नर तोतों के गले में
पड़ी लाल कंठियों की सादगी मिश्रित खूबसूरती नौलखों को भी मात देती थीं।
मन में पुरानी यादों का इंद्रधनुष उभरा तो बरबस ‘माताजी’ का भी स्मरण हो आया। ‘गाय हमारी माता है’ की तर्ज पर हमारा पूरा
परिवार उन्हें इसी नाम से बुलाता था। वे कुछ चितकबरे रंग की थीं और वर्षों तक
हमारे घर आती रहीं। ये तो पता नहीं कि वो कहाँ से आती थी पर उनके आने का समय ज़रूर
निश्चित था। माँ सुबह खाना बनाना शुरू करने पर पहली रोटी उनके नाम की बनातीं। सुबह-सवेरे
नाशते के लिए आने वाले कबूतरों से उलट ‘माताजी’ में अत्यंत धैर्य था, शायद वो ‘माताजी’ थीं इसलिए। दिन में करीब 2
बजे वो घर के मेनगेट पर खड़ी होकर रंभाती और अपनी रोटी लेकर चुपचाप वहाँ से चली
जाती। हैरानी मुझे इस बात की थी कि उन्होंने कभी चारदीवारी में लगे किसी पौधे को
उदरस्थ नहीं किया।
अचानक बिटिया की ताली की आवाज़ से मैं वर्तमान में
लौटी। एक बार फिर चिड़िया बालकनी की रेलिंग पर बैठी थी। प्रकृति का इशारा समझ मैं
चूरी की थाली बालकनी में ही छोड़ बिटिया को लेकर अंदर चली आई और सोचने लगी कि रोज़मर्रा
के जीवन में कितने ही सुखद क्षण अनायास ही हमारी झोली में आ गिरते हैं पर जीवन की
आपाधापी में हम उन्हें महसूस ही नहीं कर पाते। महानगरों के ‘फ्लैट कल्चर’ में तो चिड़िया, तोता, गाय जैसे उन आम
पशु-पक्षियों का नज़ारा भी दुर्लभ होता जा रहा है जो अन्य शहरों में घर-परिवार का
हिस्सा होते हैं।
मुझे डर है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि आने वाली पुश्तें
तोता, मैना और गिलहरी जैसे पशु-पक्षियों
को ‘गूगल इमेजेज़’ पर ही देख पाएं और गाय पर पाँच पंक्तियाँ लिखने के लिए भी
उसे इंटरनेट की मदद की ज़रूरत पड़े। गाय माता, बिल्ली मौसी और चंदा मामा
किस्से-कहानियों का ही हिस्सा न बनकर रह जाएँ। अपने बच्चों को प्रकृति से
जोड़ने की सीधी ज़िम्मेदारी हमारी है। आइए, अपने घर के बाहर
पशु-पक्षियों के पानी पीने का बर्तन रखकर शुरुआत करें। और उसमें रोज़ नया पानी
भरने की ज़िम्मेदारी अपने बच्चों को दें। मॉल के साथ-साथ बच्चों को खुले
पिकनिक स्पॉट्स पर भी ले जाएं ताकि वो भी अपने हिस्से के उन खुशनुमा लम्हों को
ज़रूर जी सकें जिन्हें आप-हम अब तक अपनी यादों की पोटली में संजोए हैं।