Tuesday, 26 August 2014

सतरंगी यादें

गोद में बिटिया और थाली में परांठे की चूरी लिए अभी मैं बालकनी में आकर बैठी ही थी कि कहीं से एक चिड़ि‍या आई और थाली में चोंच मारकर फुर्र हो गई। मैं ज़रा-सा चौंकी...फिर बिटिया को परांठा खिलाने की जुगत में लग गई। लेकिन उसका ध्‍यान भटकाने के लिए तो चिड़ि‍या का यह हवाई हमला ही काफ़ी था। मैंने उसकी दादी जी की तरकीब अपनाते हुए एक निवाला हाथी का, एक निवाला घोड़े का कहते हुए उसके मुँह में परांठे की चूरी डालने की बहुत कोशिश की पर नाकाम रही। हारकर मैं भी बालकनी के ठीक सामने लगे बॉटल-ब्रश के उस पेड़ की ओर देखने लगी जहां चूरी चुराने के बाद चिड़ि‍या जा बैठी थी और अब बिटिया रानी टकटकी लगाए बैठी थी।

टहनी पर एक घोंसला बना था जिसमें से सूखे तिनके और कपड़ों की चिंदियां झांक रही थीं। घोंसले में चिड़ि‍या के तीन नौनिहाल थे जिन्‍हें वह अपनी चोंच में भरी चूरी बारी-बारी से खिला रही थी। उनके सफ़ेद, शफ़्फ़ाफ़ पेट पेड़ की पत्तियों से छनकर आती सर्दी की कुनकुनी धूप में चमक रहे थे और अपनी चिकनी चोंचों से वो चूरी खाने की ऐसी होड़ा-होड़ी में लगे थे मानो हर कोई अपनी माँ से कह रहा हो, पहले मैं’, पहले मैं


दिल्‍ली में दुर्लभ इस मनोहारी दृश्‍य से अधरों पर बरबस ही मुस्‍कान दौड़ गई। मन मानो अचानक पुरानी यादों की खुशबू से भर गया। मुझे याद आ गए वे दिन जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ती थी और दिसंबर के पहले हफ़्ते में अर्धवार्षिक परीक्षाएं खत्‍म होने के बाद मैंने बोर्ड की परीक्षा की तैयारी घर पर ही रहकर करना तय किया था। ड्राइंगरूम के बाहर का बड़ा-सा बरामदा और उसके आगे का लॉन पढ़ने के लिए मेरी पसंदीदा जगह हुआ करते थे। स्‍कूल से छुट्टियां लेने के साथ ही मैंने लॉन में पढ़ने के लिए एक कुर्सी-मेज़ स्‍थायी रूप से रख दिए थे और तड़के जो मैं वहाँ  डेरा डालती तो तब तक वहीं बैठी रहती जब तक शाम को हवा सर्द नहीं हो जाती।

पढ़ाई के साथ-साथ तिल के लड्डू और रेवड़ी-मूँगफलियों का दौर भी चला करता था। एक दिन मैं अपनी किताब में मग्‍न थी कि तभी कुट-कुट की आवाज़ ने मेरा ध्‍यान खींचा। क्‍या देखती हूं कि मेरी मेज़ के नीचे रखी मूँग‍फलियों की तश्‍तरी में एक गिलहरी बैठी है और उसके हाथ में एक मूँगफली है। नज़ारा दिलचस्‍प था, इसलिए मैं बिना आहट किए उसकी हरकतें देखने लगी। आगे जो मैंने देखा वो दिलचस्‍प होने के साथ-साथ हैरान करने वाला भी था। गिलहरी ने पहले अपने हाथों से मूँगफली का पीला छिलका निकाला, फिर बड़ी सफ़ाई से उसका लाल छिलका भी हटाया और उसके बाद बड़े मज़े से मूँगफली को कुतरने लगी। गिलहरी की आंगिक चेष्‍टाएं इंसानों से इस कदर मेल खाती हैं, इसका मुझे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। फिर तो यह रोज़ का क्रम बन गया। मैं जानबूझकर मेज़ के नीचे तश्‍तरी में कभी मूँगफली तो कभी लड्डू रख देती और तमाशा देखती। गिलहरी ने शायद पक्षी-जगत के अपने मित्रों को भी न्‍यौता दे दिया था और अब माल उड़ाने वालों में मैना, गौरेया और चमकदार लाल चोंच वाली एक चिड़ि‍या भी शामिल हो गई थी। थाली में रखे सामान को लेकर हर किसी की अपनी पसंद थी और उसे खाने का अपना अलग अंदाज़ भी। मैंने लॉन में मिट्टी का परिंडा भी रख दिया था और खाने के बाद ये चिड़ि‍यां अपनी चोंच में बूंद-बूंद पानी लेकर उसे पीती भी और खुद को भिगोतीं भी। कुछ दिन बीतते-बीतते तो उन्‍हें मेरी उपस्थिति से फ़र्क पड़ना ही बंद हो गया था।
    
दिनभर लॉन में बैठे रहने से गाहे-बगाहे कानों में कई मधुर ध्‍वनियाँ पड़ ही जाती थीं। कभी चिड़ि‍यों की चींचीं सुनाई देती तो कभी सुग्‍गों की कूहूँ-कूहूँ। मुझे ध्‍यान है कि भोर होते ही पिताजी का पहला काम घर के आँगन, छत और चारदीवारी में बाजरा डालने का होता था। कभी उठने में देरी हो जाती तो कबूतर छत पर चोंच मारने लगते, उनके चोंच मारने की आक्रामकता से साफ़ पता चलता था कि वे अपने नाश्‍ते के लिए बेसब्र हो रहे हैं। घर के बाहर लगे बिजली के तार पर कतार में बैठे तोते कोरस में न जाने कौन-सा लोकगीत गाते थे। नर तोतों के गले में पड़ी लाल कंठियों की सादगी मिश्रित खूबसूरती नौलखों को भी मात देती थीं।  

मन में पुरानी यादों का इंद्रधनुष उभरा तो बरबस माताजी का भी स्‍मरण हो आया। गाय हमारी माता है की तर्ज पर हमारा पूरा परिवार उन्‍हें इसी नाम से बुलाता था। वे कुछ चितकबरे रंग की थीं और वर्षों तक हमारे घर आती रहीं। ये तो पता नहीं कि वो कहाँ से आती थी पर उनके आने का समय ज़रूर निश्चित था। माँ सुबह खाना बनाना शुरू करने पर पहली रोटी उनके नाम की बनातीं। सुबह-सवेरे नाशते के लिए आने वाले कबूतरों से उलट माताजी में अत्‍यंत धैर्य था, शायद वो माताजी थीं इसलिए। दिन में करीब 2 बजे वो घर के मेनगेट पर खड़ी होकर रंभाती और अपनी रोटी लेकर चुपचाप वहाँ से चली जाती। हैरानी मुझे इस बात की थी कि उन्‍होंने कभी चारदीवारी में लगे किसी पौधे को उदरस्‍थ नहीं किया।     

अचानक बिटिया की ताली की आवाज़ से मैं वर्तमान में लौटी। एक बार फिर चिड़ि‍या बालकनी की रेलिंग पर बैठी थी। प्रकृति का इशारा समझ मैं चूरी की थाली बालकनी में ही छोड़ बिटिया को लेकर अंदर चली आई और सोचने लगी कि रोज़मर्रा के जीवन में कितने ही सुखद क्षण अनायास ही हमारी झोली में आ गिरते हैं पर जीवन की आपाधापी में हम उन्‍हें महसूस ही नहीं कर पाते। महानगरों के फ्लैट कल्‍चर में तो चिड़ि‍या, तोता, गाय जैसे उन आम पशु-पक्षियों का नज़ारा भी दुर्लभ होता जा रहा है जो अन्‍य शहरों में घर-परिवार का हिस्‍सा होते हैं।

मुझे डर है कि कहीं ऐसा न हो जाए कि आने वाली पुश्‍तें तोता, मैना और गिलहरी जैसे पशु-पक्षियों को गूगल इमेजेज़ पर ही देख पाएं और गाय पर पाँच पंक्तियाँ लिखने के लिए भी उसे इंटरनेट की मदद की ज़रूरत पड़े। गाय माता, बिल्‍ली मौसी और चंदा मामा किस्‍से-कहानियों का ही हिस्‍सा न बनकर रह जाएँ। अपने बच्‍चों को प्रकृति से जोड़ने की सीधी ज़ि‍म्‍मेदारी हमारी है। आइए, अपने घर के बाहर पशु-पक्षियों के पानी पीने का बर्तन रखकर शुरुआत करें। और उसमें रोज़ नया पानी भरने की ज़ि‍म्‍मेदारी अपने बच्‍चों को दें। मॉल के साथ-साथ बच्‍चों को खुले पिकनिक स्‍पॉट्स पर भी ले जाएं ताकि वो भी अपने हिस्‍से के उन खुशनुमा लम्‍हों को ज़रूर जी सकें जिन्‍हें आप-हम अब तक अपनी यादों की पोटली में संजोए हैं।   

Wednesday, 20 August 2014

Full of beans...

My mother quotes a saying quite often, “the way to a man’s heart is through his stomach’’ but first, academics and then profession kept me too busy to try my hand at cooking. Then, there was a year long hiatus from office job as I shifted to Delhi from Jaipur post marriage. I had ample time to pursue any activity of my choice. Mumma’s (as I call my mother) words reverberated and I decided to develop my culinary skills. What I took up as a pastime activity soon seemed quite fascinating to me and I tried many Indian recipes at home. One dish that my husband enjoys a lot, till date, is from Karnataka cuisine, BEANS FOOGATH (after all winning his heart was the hidden agenda behind undertaking cooking after marriage!!!). And yes, this mildly spiced recipe is my favorite also as it can be cooked with zero oil and (of course, with minimum effort). Have a look at the succulent recipe:  

'BEANS FOOGATH' COOKED BY SELF PROCLAIMED CHEF 'MEETU' 
Main Ingredients

200 gram french beans
1 medium sized onion, chopped 
8-10 curry leaves
½ teaspoon mustard seeds
1 tbsp grated coconut
Salt as per taste
1 tsp lemon juice  
½ cup water

Method

  1. Roast mustard seeds in a heated pan. Add curry leaves and chopped onions to it. Stir on low heat for 2 minutes. Don’t brown the onions.
  2. Add French beans, salt and half cup water. Cover the pan with a plate and pour some water on the plate.
  3. Cook it for 8-10 minutes or till the beans are cooked. But they should still remain a little crunchy.
  4. Add lemon juice and grated coconut.
  5. Mix well and serve hot.
P.S. – French beans are a rich source of vitamins, protein, fibers and omega-3 acids and this steamed recipe can also contribute greatly in cutting down your extra flab! 

Saturday, 16 August 2014

गलती किसकी?

कुछ समय पहले एक खबर पढ़ी थी कि टीचर की अश्‍लील हरकत और पंचायत के मामले को रफ़ा-दफ़ा करने से परेशान होकर एक किशोरी ने आत्महत्या कर ली, यानी जाने-अनजाने उसे उस जुर्म की सजा मिली जो उसने किया ही नहीं था। यह शर्मिंदगी की बात ही है कि आए दिन हमारे अखबार यौन-अपराधों से जुड़ी खबरों से भरे पड़े रहते हैं, वहीं टीवी चैनलों पर भी ऐसे दर्दनाक किस्सों की भरमार रहती है। हर बार ऐसे मामले मन में एक ही सवाल छोड़ जाते हैं कि हमारे समाज का यह कैसा दोगलापन है जो यौन शोषण के हालात पैदा करता है, पुरुष को बच निकलने की गुंजाइश भी देता है, लेकिन पीड़ित स्त्री को सिर उठाकर जीने का हक तक नहीं देता।                                   
''गलती किसकी''
कोई शक नहीं कि पूरी तस्वीर ही अफ़सोसनाक है, पर इस पूरे मामले में जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है वो ये कि यहां लड़की के साथ अश्‍लील हरकत की गई थी, उसका बलात्कार नहीं हुआ था, फिर भी उसने अपनी जान ले ली। बेशक, छेड़छाड़ या अश्‍लील हरकत को अपराध के पैमाने पर बलात्कार से कम नहीं आंका जा सकता, पर आखिर हमने यौन अपराधों को इतना बड़ा मान ही क्यों लिया है कि उनके आगे महिलाओं का वजूद ही बौना हो गया, उनकी जान की कीमत ही शून्य हो गई? सवाल जो सारे शोर में कहीं खो गया वो ये कि किशोरी ने आत्महत्या टीचर से मिली शारीरिक प्रताड़ना के चलते की या समाज की खा जाने वाली नजरें और मामले को दबाने की कोशिश इसकी वजह बने। घटना के कई दिन बाद ऐसा कदम उठाना तो यही संकेत देता है कि दूसरी वजह ही ज्यादा बलवती रही होगी। पर-पुरुष का स्पर्श भी स्त्री के लिए पाप है जैसी जाने कितनी ही सीखों का पुलिंदा उस ग्‍यारह बरस की किशोरी के मन में गहरे दबा होगा जिसने उसे इतना बड़ा कदम उठाने को मजबूर किया।
बेशक, यौन शोषण या इस कड़ी में बलात्कार एक गंभीर अपराध है, पर इसलिए नहीं कि यह स्त्री के शील से जुड़ा है, बल्कि इसलिए कि ये एक स्वतंत्र अस्तित्व वाले जीते-जागते प्राणी की दैहिक स्वतंत्रता का खुला उल्लंघन है। उपर्युक्त मामले में ऐसा नहीं था कि किशोरी के माता-पिता ने उसका साथ दिया हो, लेकिन फिर भी उसने खुद को जीने लायक नहीं समझा। शायद इसलिए कि हमारे तथाकथित सभ्य समाज में यौन-अपराधों को लेकर जैसी हाय-तौबा मचती है, वैसी शायद कहीं नहीं। ऐसे आदिवासी समाज भी हैं जहां बलात्कार के मामलों की संख्या हमारे तथाकथित सभ्य समाजों की तुलना में बहुत कम है, फिर अगर वहां कोई लड़की ऐसी वारदात का शिकार हो भी जाए तो आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होती, लेकिन हमारे यहां शायद ही कोई लड़की होगी जो यौन हिंसा का शिकार होने की बजाय मर जाना पसंद नहीं करेगी। खुदा-ना-खास्ता ऐसी अनहोनी हो जाए तो ऐसा ही करती भी हैं। इस तरह यह मसला केवल स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि किसी स्त्री के जीने के बुनियादी अधिकार से भी जुड़ा है।
जब तक हम केवल ऐसी घटनाओं को रोकने, बल्कि उनके होने के लिए भी खुद को तैयार नहीं कर लेते, तब तक ऐसे ही मासूम जानें जाती रहेंगी। समझ नहीं आता कि आखिर दुर्घटना घट जाने के बाद ही हम अपनी बेटियों के आंसू क्यों पोंछते हैं? क्यों उन्हें शुरू से ही जिस्मानी और ज़ेहनी तौर पर इतना मज़बूत नहीं बनाते कि ऐसी नौबत आने पर जमकर प्रतिरोध कर सकें। कम-से-कम अन्याय का शिकार होने पर आत्मग्लानि तो पालें। लेकिन उस समाज से ऐसी उम्मीद कैसे की जा सकती है, जहां किसी लड़की के समाज में सम्मान की कसौटी ही उसका कौमार्य हो, जहां अदालतों में रस ले-लेके उसके साथ हुए दैहिक शोषण का मामला परोसा जाता हो और ऐसे मामलों की सुनवाई में सबसे ज्यादा भीड़ जुटती हो।
बहरहाल, इस प्रसंग से कुछ वक्‍त पहले तक टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन का ख्याल हो आया जहां गर्भनिरोधक का विज्ञापन आते ही बच्चों के साथ टीवी देख रहे माता-पिता असहज हो उठते हैं और बच्चों को किसी काम के बहाने कमरे से बाहर भेज देते हैं। जब हम अपने बच्चों के साथ बैठकर ऐसे विज्ञापन तक देखने की हिम्मत नहीं जुटा सकते तो भला कैसे इस विषय पर उनके साथ चर्चा कर सकेंगे? कैसे अपनी बेटियों के मन में ये बात बिठा पाएंगे कि वे सिर्फ हाड़-मांस का पुतला होकर तन-मन के जोड़ से बना एक व्यक्तित्व हैं? कैसे अपने बेटों के मन में नारी-शरीर के लिए सम्मान जगा पाएंगे? अगर हम यूं ही चुप्पी धरे रहे तो विकल्प क्या है? शायद कुछ नहीं! तब शायद हमें उस जोखिम के साथ ही जीना होगा जब या तो किसी बेटी के यौन हिंसा के शिकार हो फांसी लगाने की खबर कानों में पड़ेगी या फिर किसी बेटे के ऐसे कुकृत्य को अंजाम देने के बाद हमारा सिर खुद-ब-खुद शर्म से झुक जाएगा।
(जनसत्ता में प्रकाशित)