मेरी उससे रोज़ मुलाकात
होती है, फिर भी मैं उसका बेसब्री से इंतज़ार करती हूं। यूं तो वो हमारे घर खाना
पकाने आती है पर अब हमारे बीच यह रिश्ता बस कहने-भर को ही रह गया है। नून-तेल की
बातें करते-करते हम न जाने कब अपनी-अपनी दुनिया एक-दूसरे के साथ साझा करने लगे,
पता ही नहीं चला। उसके घर सत्यनारायण की कथा हो तो मैं अपने घर बैठे-बैठे ही
प्रसाद की सहभागी हो जाती हूं। मेरे घर में किसी का जन्मदिन हो तो सुबह पहले
मिष्ठान्न बनाकर ‘मीठी बधाइयों’ का श्रीगणेश वही करती है।
तन पर सादी साड़ी, मांग
में माथे तक आती सिंदूर की लंबी रेखा, बड़ी-सी बिंदी और कलाइयों में सुहाग की
निशानी के तौर पर दो लाल-सफेद चूड़ियां। यह मनोरमा की जगजाहिर साधारण-सी पहचान है
पर जिस मनोरमा को मैं जानती हूं या यूं कहूं कि अब पहचानने लगी हूं, वो वाकई एक
असाधारण व्यक्तित्व की महिला है। एक ऐसी औरत जो अपने शराबी पति और तीन बच्चों
की धन्वंतरि भी है और अन्नपूर्णा भी। मनोरमा अपने पति, सात साल के बेटे और पांच
साल की दो जुड़वां बेटियों के साथ कोई पंद्रह बरस पहले कलकत्ता से दिल्ली आई थी।
उसका पति कलकत्ता में किसी ठेकेदार के यहां बेलदारी करता था लेकिन जब बेलदारी से
परिवार की बदहाली नहीं गई तो परिवार ने दिल्ली का रुख किया। पति ने रिक्शा
किराये पर लेकर चलाना शुरू किया पर एक छोटी-सी दुर्घटना से घबराकर इस काम से हमेशा
के लिए तौबा कर ली। किसी रंगरेज़ से कपड़े डाई करने का काम सीखा पर कुछ दिन बाद ही
लड़-झगड़कर वो भी छोड़ दिया।
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जब उसके इस रवैये से
उनके तंबूनुमा घर का किराया देना भी मुश्किल हो गया तो मनोरमा ने घरों में
सफाई-बर्तन का काम करना शुरू किया। फिर एक दिन किसी ‘अच्छी भाभी’ के सुझाव पर दिल्लीवालों का खाना बनाना सीखा और ‘सफाईवाली’ से ‘खाना बनानेवाली’ हो गई। इस तरह पति ने दो साल में आज़माए-बिना
आज़माए दो काम गवाएं और मनोरमा ने अपनी मेहनत और लगन से यथासंभव तरक्की की। आमदनी
कुछ अच्छी हुई तो पति से छिपाकर तिनका-तिनका कुछ पैसे जोड़ने शुरू किए। बेटियों की
शादी, बेटे के लिए भविष्य में काम-धंधे का जुगाड़ और दिल्ली के किसी कोने में
कोई ‘खोली’ जिसे वह अपना ‘घर’
कह सके – सारी उम्मीदों का आधार,
सारे सपनों का प्रवेशद्वार यह धन उसके जीवन का सबसे बड़ा गौरव, सबसे बड़ा संबल
था।
बहरहाल, परिवार का
जीवन कुछ पटरी पर आने लगा। मनोरमा ने अपने तीनों बच्चों का दाखिला पास के सरकारी
स्कूल में करवा दिया। सबकुछ बदलने लगा था। अगर कुछ नहीं बदल रहा था तो वो था
मनोरमा के पति का निकम्मापन और शराब की लत। मनोरमा तड़के उठकर घर-भर का काम निपटाती,
दिनभर दूसरों के घर में खटती और शाम को उसके घर लौटने पर जब पति को शराब के लिए
पैसे नहीं मिलते तो गाली-गलौज का सिलसिला शुरू हो जाता। आए दिन घर में महाभारत
होता और मनोरमा बमुश्किल दो-चार कौर हलक के हवाले कर चुपचाप पानी पीकर सो जाती।
कभी पति प्यार से बरगलाकर तो कभी पीटकर पैसा निकलवाने की कोशिश करता। वो जान का
ज़ोर लगा देती पर एक खोटा सिक्का न देती। मुझसे कहती, ‘‘उसे पैसा कैसे दे दूं भाभी? सब शराब में उड़ा देगा। बेटियों को भी तो ब्याहना है।
फिर आज के टाइम में नौकरी कहां मिलती है, पैसा हाथ में रहा तो कुछेक साल बाद बेटे
को कोई छोटा-मोटा काम-धंधा ही शुरू करवा दूंगी।’’
एक दिन तो मनोरमा के
पति ने हद ही कर दी। जब उसे अपनी लत पूरी करने को पैसे नहीं मिले तो उसने गुस्से
में पागल होकर मनोरमा के सिर पर एक पत्थर दे मारा। मनोरमा के माथे से खून की धारा
फूट पड़ी और उसका पति डरकर भाग खड़ा हुआ। खैर, जाको राखे साइयां, मार सके न कोय।
जैसे-तैसे मनोरमा ठीक हो गई पर उसका पति फिर लौटकर नहीं आया। सुनने में आया कि
उसने अपने से आधी उम्र की किसी लड़की से शादी कर ली और अब दिल्ली में ही किसी कच्ची
बस्ती में रहता है।
इसके बावजूद जब-तब
उसकी बातें करते हुए मनोरमा का गला भर आता और गालों पर आंसू लुढ़क आते। फिर एक शाम
मनोरमा बदहवास-सी घर आई। न पैरों में चप्पल, न माथे पर बिंदी। हाथ जोड़कर कहने
लगी, ‘‘भाभी! अम्बा के पापा (उसका पति) को पुलिस पकड़कर
ले गई है। नकली दारू बनाने का कोई चक्कर है। अभी-अभी उसकी दूसरी पत्नी ने आकर
बताया है। ये रही मेरी सारी जमा-पूंजी। भगवान के लिए उसे पुलिस से छुड़वा लो, नहीं तो वो पीट-पीटकर उसकी चमड़ी उधेड़
देंगे।’’
मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सी
हो गई। यह कैसी उलटी गंगा बह रही थी। रक्षा तो मनोरमा के पति को उसकी करनी चाहिए
थी। कहां एक तरफ उसने अपनी पत्नी की जान लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और कहां
मनोरमा उसकी जान बचाने की खातिर अपनी गाढ़ी कमाई देने को तैयार थी। कहां उसके पति
ने एक बार भाग जाने के बाद उसकी सुध भी नहीं ली थी और कहां वो हर दिन उसकी याद में
कलपती रहती थी। पर मैं उसे ये सब नहीं कह पाई। जानती थी प्रेम के आगे तर्क की धार क्षीण
पड़ जाती है।
(जनसत्ता में प्रकाशित)
(जनसत्ता में प्रकाशित)