Saturday 6 May 2017

आइसक्रीम, बच्‍चा और समाज

अभी मैं मॉल के आइसक्रीम काउंटर पर पहुंची ही थी कि लगा पीछे से कोई मेरा दुपट्टा खींच रहा है। यह बालसुलभ कोमलता वाले किन्‍हीं नन्‍हें हाथों का स्‍पर्श मालूम होता था। मेरी बेटी, जिसकी आइसक्रीम की ज़िद मुझे शॉपिंग छुड़ाकर आइसक्रीम काउंटर तक खींच लाई थी, आइसक्रीम दिलाए जाने के नाम पर पहले ही बड़े लाड़ से गल‍बहियां डाले मेरी गोद में चहक रही थी, फिर भला इतने हक़ से और कौन मेरा दुपट्टा खींचे जा रहा था? मुड़कर देखा तो पाया कि निकर-टीशर्ट पहने कमोबेश मेरी बिटिया की ही उम्र का एक बच्‍चा मेरा दुपट्टा थामे खड़ा था। मेरे पलटते ही कहने लगा, आंटी आइसक्रीम दिला दो। मैं उसके सीधी बात नो बकवास टाइप लहज़े पर पहले थोड़ा सकपकाई, फिर उसकी मासूमियत पर लाड़ उमड़ आया...मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान। सच, इस तरह बेलाग अपनी बात कहना भी एक कला ही है जो हम बड़े बच्‍चों से सीख सकते हैं।     

मैंने इस उम्‍मीद में चारों तरफ देखा कि कहीं उसके माता-पिता या कोई रिश्‍तेदार नज़र आ जाए पर वहां कोई नहीं था। अपनी बिटिया जितने बच्‍चे का आग्रह ठुकराना, और वो भी उस आइसक्रीम के लिए जिसमें बच्‍चों की जान बसती है, मेरे लिए एक भावनात्‍मक चुनौती था पर यह सोचकर रुक गई कि बच्‍चों के प्रति बढ़ते अपराधों के इस दौर में किसी अनजान बच्‍चे को यूं कुछ खाने की चीज़ दे देना भी तो ठीक नहीं। न मालूम कब आप पर बच्‍चे को बरगलाने का इलज़ाम आ जाए।     

इधर, बच्‍चे ने मुसलसल एक ही रट लगा रखी थी कि आंटी आइसक्रीम दिला दो। बच्‍चे को लेने अभी तक कोई नहीं आया था, इसलिए मैंने उसी से पूछा कि वो मॉल में किसके साथ आया है, उसके मम्‍मी-पापा कहां है पर मेरे हर सवाल के जवाब में उसका एक ही सवाल मिला कि आंटी आइसक्रीम दिलाओगे न? मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्‍या करूं? इस सब के चलते मैं अपनी बिटिया को भी नाराज़ कर बैठी थी। आखिर एक बच्‍चे के सामने उसे टालकर दूसरे बच्‍चे को आइसक्रीम कैसे दिलाती? काउंटर पर सजी रंग-बिरंगी आइसक्रीम देख-देखकर बिटिया का मन बेकाबू हो रहा था और अब वो मुंह फुलाकर काउंटर के दूसरे कोने में जा बैठी थी। उसका एक बांह पर दूसरी बांह चढ़ाए मुंह फेरकर बैठना मेरे लिए शुभ संकेत नहीं था। यह उसकी खास कोपभवन मुद्रा थी।   

दूसरी तरफ, अब मुझे बच्‍चे की भी चिंता होने लगी थी। कभी-कभी बच्‍चे मॉल में माता-पिता का हाथ छुड़ाकर थोड़ा आगे निकल जाते हैं पर ऐसे में अभिभावकों को उन्‍हें खोजने में इतना वक्‍त तो नहीं लगता। थी। करीब 4-5 मिनट से तो वो बच्‍चा मुझसे ही आइसक्रीम की ज़ि‍द किए जा रहा था। कितनी ही बार मेरी बिटिया भी मॉल में ऐसे ही मस्‍ती में आगे-पीछे हुई है पर हर बार चंद सैकण्‍डों में ही वो फिर से हमारे साथ हो ली है। अब तक मेरा मन जो बच्‍चे को आइसक्रीम दिलाने या न दिलाने को लेकर पसोपेश में था, अब उसके अपने माता-पिता के बिछड़ जाने की आशंका से घबराने लगा था। बच्‍चा भी मेरा हर सवाल अनसुना करके बस आइसक्रीम की रट लगाए हुआ था। चेक की टी-शर्ट और निकर में वो किसी धनाढ्य परिवार का नहीं, तो भी ठीक-ठाक परिवार से मालूम होता था। बच्‍चे से उसके बारे में कोई भी जानकारी मिलना व्‍यर्थ था, इसलिए अब मेरे पास एक ही विकल्‍प था कि मॉल की सिक्‍योरिटी के पास जाकर बच्‍चे का हुलिया बताऊं और उसके बारे में एनाउंसमेंट करवाऊं। अचानक मुझे एहसास हुआ कि कहीं दूर से एक जोड़ी आंखें मुझ पर टिकी हुई हैं। मैंने महसूस किया कि एक अधेड़ उम्र का आदमी कनखियों से मुझे, बल्कि इस पूरे घटनाक्रम को देख रहा है। उसकी आंखों में छिपी धूर्तता से अचानक ही जैसे मेरी छठी इन्द्रिय जागृत हो गई और मुझे सारा माजरा समझ आ गया।



मुझसे आइसक्रीम की ज़ि‍द कर रहा बच्‍चा दरअसल इन्‍हीं महाशय के साथ मॉल आया था और संभवत: खुद इन्‍होंने ही मुझे आइसक्रीम काउंटर की ओर जाते देख उसे मेरे पीछे लगाया था। जिस तरह से वह व्‍यक्ति हमारी तरफ नज़रें बचाकर ताक रहा था, साफ़ पता चल रहा था कि वह इस पूरे घटनाक्रम का एक मुख्‍य पात्र है और उस पर भी मेरी सीमित बुद्धि और एक बच्‍ची की मां होने का अनुभव यही कहता है कि एक चार-पांच साल का बच्‍चा इतना तो जागरूक होता ही है कि एक अनजान जगह पर अपने माता-पिता से बिछड़ जाने के संकट का एहसास कर पाए जबकि यह बच्‍चा मेरे बार-बार पूछने पर भी अपने घरवालों के बारे में न बताकर आइसक्रीम की ही रट लगाए जा रहा था यानी वह किसी अपने के आसपास होने को लेकर आश्‍वस्‍त था। जब मैंने उस व्‍‍यक्ति को अर्थपूर्ण तरीके से घूरना शुरू किया तो उसने बच्‍चे को कुछ इशारा किया और बच्‍चा तुरंत उसके पास भाग गया।

मैंने बिटिया को आइसक्रीम दिलाकर अपने फौरी संकट से निज़ात पाई पर मन खट्टा हो गया था। एक तरफ, एक छोटे-से बच्‍चे को आइसक्रीम के लिए तरसाने का अपराधबोध हो रहा था तो दूसरी ओर, उसके साथ आए उस अधेड़ की मानसिकता को लेकर मन में आक्रोश था। अगर बच्‍चा आइसक्रीम के लिए ज़ि‍द कर रहा था और वह उसे वहां से महंगी आइसक्रीम नहीं दिला सकता था तो क्‍या यह बेहतर नहीं होता कि वह उसे मॉल के बाहर से अपेक्षाकृत सस्‍ती आइसक्रीम दिला देता...आखिर पहनावे और हुलिए से वे दोनों ही इतने निर्धन तो नहीं दिखाई देते थे और अगर यह भी मान लिया जाए कि वह भी उसकी जेब से बाहर की बात थी तो क्‍या उसने बच्‍चे को मांगकर खाने का रास्‍ता दिखाया, वह सही था? ऐसा भी नहीं है कि बच्‍चा रो-रोकर आइसक्रीम के लिए आधा हुआ जा रहा हो, वह पूरी तरह संयत लग रहा था। फिर भी उसने एक अबोध बच्‍चे को सही समझाइश देने के बजाय उसे परजीवी बनने का पाठ पढ़ाया। उस अबोध बालक ने तो यही जाना कि कुछ खरीद न पाओ तो मांग लो...यानी जाने-अनजाने उसमें मांगकर खाने के बीज डाल दिए गए थे। आज बच्‍चा छोटा और निर्बल था तो आइसक्रीम न मिलने पर लौट गया पर कल को यह भी तो संभव है कि यही बच्‍चा बड़ा होकर इच्छित वस्‍तु को पाने के लिए आक्रामक होकर हिंसक तरीकों का सहारा लेने लगे क्‍योंकि यह तो इसने जाना ही नहीं कि श्रम से अप्राप्‍य भी प्राप्‍य बनाया जा सकता है।

या फिर किस्‍सा कुछ और ही था...यह भी संभव है कि पूरा मामला बच्‍चे की आइसक्रीम खाने की चाह का न होकर अधेड़ की धन-लोलुपता का हो और बच्‍चे का इस्‍तेमाल सिर्फ एक मोहरे की तरह किया जा रहा हो। यह सोचकर बच्‍चे को आइसक्रीम मांगने भेजा जा रहा हो कि लोग एक अनजान बच्‍चे को मॉल से 100-150 रुपए की आइसक्रीम न भी दिलाएंगे तो उस पर तरस खाकर 10-20 रुपए तो दे ही देंगे और इस प्रकार अधेड़ के अपने कुत्सित इरादे पूरे हो सकेंगे और यहीं सामाज के रूप में हमारी भूमिका भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जो दान किसी को सम‍र्थ बनाने के बजाय उसका सामर्थ्‍य छीन लें, क्‍या उसे दान कहना उचित है? मैंने तो इस आंखों देखी से यही जाना कि उदार होना अच्‍छी बात पर है पर जिसे आप दान देने जा रहे हैं, उसकी पात्रता जांच लेना भी ज़रूरी है ताकि किसी ऐसे व्‍यक्ति को इसका खामियाज़ा न भुगतना पड़े जो सही मायनों में ज़रूरतमंद हो। शास्‍त्रों में भी कहा गया है, ‘‘लब्धानामपि वित्तानां बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ। अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ’’ अर्थात् वित्तवानों के हाथ से धन का दो तरीकों से दुरुपयोग होता है: कुपात्र को दान देकर, और सत्पात्र को न देकर।

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