Tuesday 24 October 2017

चुनमुन और जंक फूड

आज स्‍कूल में शनि‍वार की छुट्टी थी। हर छुट्टी की तरह चुनमुन चूहा माँ के जगाए बिना ही सुबह-सुबह उठ बैठा था। माँ को शनि‍वार को भी ऑफिस जाना होता है, सो वो तैयार हो रही थीं। उन्‍होंने चुनमुन के दूध का मग टेबल पर रख दिया था पर चुनमुन दूध न पीकर माँ के अगल-बगल उछल-कूद कर रहा था। कंधे पर बैग टांगकर माँ ने चुनमुन को प्‍यार किया, फिर उसे जल्‍दी से दूध खत्‍म करने और फ्रिज में रखा हैल्‍दी फूड ठीक से खाने की हिदायत देकर स्‍कूटर स्‍टार्ट कर दिया।  

इधर माँ चलीं और उधर चुनमुन मस्‍ती में स्‍कूटर से रेस लगाने लगा। पर कहाँ सरपट भागने वाला स्‍कूटर और कहाँ नर्सरी में पढ़ने वाला नन्‍हा चुनमुन?! स्‍कूटर तो पलक झपकते ही कहाँ-का-कहाँ नि‍कल गया और चुनमुन भी उसके पीछे भागता-भागता घर से दूर जाने कहाँ-का-कहाँ ही पहुँच गया। कुछ देर बाद जब उसकी सांस फूलने लगी तब कहीं जाकर उसे लगा कि वो घर से बहुत दूर नि‍कल आया है और रास्‍ता भटक चुका है।  

अचानक उसने देखा कि एक बिल्‍ली दबे पाँव उसकी तरफ बढ़ रही है। पहले तो वो डर के मारे थर-थर कांपने लगा, फिर उसे माँ की बात याद आ गई कि डरने से कुछ नहीं होता, कोशिश करने से होता है’, बस फिर उसने मन-ही-मन कुछ ठाना और पूरा ज़ोर लगाकर भागा। चुनमुन की माँ उसके टिफिन में रोज़ हैल्‍दी फूड रखती थीं और घर पर भी सिर्फ संडे को ही जंक फूड खाने देती थीं। इसलिए छोटा होने के बावजूद चुनमुन खूब ताकतवर और फुर्तीला था। जब वो अपनी पूरी ताकत लगाकर दौड़ा तो बिल्‍ली मौसी बहुत पीछे छूट गईं। चुनमुन ने एक बार जो भागना शुरू किया तो तब तक पीछे मुड़कर नहीं देखा जब तक वो जंगल से बाहर नहीं नि‍कल आया। भागता-भागता चुनमुन नंदनवन से सटे दिल्‍ली में स्‍वरा की सोसाइटी तक जा पहुँचा और अपनी जान बचाने के लिए पानी के पाइप पर चढ़कर स्‍वरा के फ्लैट में घुस गया।

स्‍वरा अपने मम्‍मा-पापा और दादू-अम्‍मी के साथ रानीखेत घूमने गई हुई थी, इसलिए घर बिल्‍कुल खाली था। सुबह से भूखे चुनमुन के पेट में चूहे कूद रहे थे। सबसे पहले उसने फ्रिज खोला। फ्रिज में दो सेब, दो-चार अमरूद, कुछ टमाटर और दूसरी सब्जिया रखी थीं जो उसके लिए हफ्तेभर को भी काफ़ी थीं। सबसे पहले उसने एक अमरूद खाया। जान में जान आई तो घर का मुआयना करने लगा। किचन में पहुँचा तो उसके नथूने खाने-पीने के सामान की मिली-जुली खुशबू से भर गए। उसने स्‍नैक्‍स का बड़ा डिब्‍बा खोला तो सबसे पहले नि‍कला मैगी का एक पैकेट, फिर कुछ चिप्‍स के पैकेट, नूडल्‍स और पास्‍ता। ये स्‍वरा का संडे स्‍पेशल स्‍टॉक था। चुनमुन की तो लॉटरी लग गई। उसने जमकर मैगी खाया, फिर जब फ्रिज में कोल्‍ड ड्रिंक भी मिल गई तो उसकी तो मौज ही लग गई।

अब यह चुनमुन का नंदनवन तो था नहीं जो उसके साथ खेलने वाले संगी-साथी यहां होते। इसलिए अब चुनमुन का बस एक ही काम रह गया था। रोज़ जंक फूड खाना और जमकर सोना। लेकिन वो नहीं जानता था कि सोसाइटी में रहने वाली एक बिल्‍ली बहुत दिनों से उसे खाने की फ़ि‍राक में थी। एक दिन जब चुनमुन चिप्‍स का पूरा पैकेट खाकर घर में बालकनी में आराम कर रहा था कि तभी बिल्‍ली मौका पाकर उसकी तरफ लपकी। चुनमुन दुम दबाकर भागा। पर ये क्‍या?! आज तो उससे बिल्‍कुल नहीं भागा जा रहा था। रोज़-रोज़ जंक फूड खा-खाकर वो बहुत मोटा हो गया था। कई दिनों से उसने न दूध पिया था, न ही फल-सब्‍ज़ी को हाथ लगाया था इसलिए उसका शरीर तो फूल गया था पर उसमें से ताकत नि‍कल गई थी। ऊपर से इतने दिन से खेलकूद भी बंद था। पर जान पर बन आई थी तो भागना तो था ही। अब आगे-आगे चुनमुन और पीछे-पीछे बि‍ल्‍ली। वो तो अच्‍छा हुआ कि बि‍ल्‍ली खुद जंक फूड खा-खाकर इतनी मुटिया चुकी थी कि चुनमुन जल्‍द ही बहुत आगे नि‍कल गया और वो हांफती हुई एक पेड़ के नीचे बैठ गई।

उधर, नंदनवन में चुनमुन की माँ का रो-रोकर बुरा हाल था, इसलिए सारे रिश्‍तेदार आसपास के शहरों में उसकी तलाश में नि‍कले हुए थे पर इतने दिन चुनमुन सोसाइटी से बाहर नि‍कलता तो कोई उसे खोज पाता न! भागता-भागता जैसे ही वो मेन रोड पर पहुँचा, उसे मोटरसाइकिल पर अपने मामाजी नज़र आ गए। वो कूदकर बाइक पर चढ़ गया। सबसे पहले उसने मन-ही-मन खुद से वादा किया कि अब से कभी बिना किसी से पूछे अकेले घर से बाहर नहीं नि‍कलेगा।

आज की घटना से उसे अच्‍छी तरह समझ आ गया था कि माँ हर वक्‍त हैल्‍दी फूड पर क्‍यों ज़ोर देती थीं, वो रास्‍तेभर गुनगुनाता रहा,
‘‘फल, सब्‍ज़ी, परांठा,
ताकत और सेहत दें ज्‍यादा।
ब्रेड, बर्गर, पिज्‍ज़ा,
अब से सिर्फ संडे को बाबा!’’ 

Wednesday 7 June 2017

कनेक्टिंग पीपल टू नेचर

‘‘मत भूलो कि धरती तुम्‍हारे पैरों को महसूस करके खुश होती है और हवा तुम्‍हारे बालों से खेलना चाहती है।’’ – ख़लील ज़ि‍ब्रान

प्रकृति के साथ मनुष्‍य का संबंध बहुत पुराना और गहरा है। मानवजाति ने अपनी आँखें प्रकृति की गोद में खोलीं और उसी के आँचल में वह फलती-फूलती रही है। विज्ञान प्रमाणित करता है कि आज से अरबों वर्ष पहले जीवन का आदि रूप सागरों में पनपा जिसमें सूर्य की रश्मियों ने जीवन का संचार किया। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने प्राकृतिक शक्तियों को देवस्‍वरूप माना। वैदिक ऋषि कामना करते हैं, ‘सूर्यस्‍य संदृशे मा युयोथा:’ अर्थात् जीवनदायी सूर्य से कभी हमारा वियोग न हो। सूर्य की किरणों से ऊर्जा लेकर ही वनस्‍पतियां अपना भोजन तैयार करती हैं और इन्‍हीं वनस्‍पतियों पर प्रत्‍यक्ष-परोक्ष रूप से अन्‍य जीव-जंतु तथा मानव जीवन आश्रित है।

वेदों में कहा गया है कि वायु ही प्राण बनकर शरीर में वास करती है। भारतीय संस्‍कृति में जल की वरुण देव के रूप में स्‍तुति की गई है। इतिहास साक्षी है कि हमारी आदि संस्‍कृतियां नदियों के किनारे ही पनपीं हैं, चाहे वह मैसोपोटामिया की सभ्‍यता हो, नील नदी की सभ्‍यता हो या फिर सिंधु घाटी या ह्वांग हो नदी के किनारे उपजी चीन की सभ्‍यता। मत्‍स्‍य पुराण में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान माना गया है। श्रीमद्भगवतगीता में कृष्‍ण कहते हैं, ‘वृक्षों में मैं पीपल हूं’।

प्रकृति के इसी जगत-पालक रूप के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए अथर्ववेद में हम शपथ लेते हैं कि, ‘‘हे धरती माँ! जो कुछ भी तुमसे लूंगा, वह उतना ही होगा जितना तू पुन: पैदा कर सके। तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूंगा।’’ लेकिन आज हम अपनी शपथ भूलकर प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट पर उतर आए हैं। प्रकृति हमारी आवश्‍यकताएं आज भी पूरी कर रही है लेकिन हम उसे अपनी अतिभौतिकवादिता की भेंट चढ़ा रहे हैं जिसके दुष्‍परिणाम अब हमारे सामने हैं। जलवायु परिवर्तन धरती के लिए भीषण खतरा बन चुका है। आंकड़े बताते हैं कि 1850 में तापमान को रिकॉर्ड करने की शुरुआत के बाद से पिछले तीन साल सबसे अधिक गर्म रहे हैं। ग्‍लोबल वॉर्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्‍लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं, समुद्री जल स्‍तर में लगातार वृद्धि हो रही है।

हमने प्रकृति की गोद से निकलकर मशीनों की शरण ली और अब सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता औद्योगीकरण हमारे पर्यावरण को निगलता जा रहा है। प्रमाणित हो चुका है कि बिजलीघरों, फैक्ट्रियों तथा वाहनों में जीवाश्‍म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें ग्‍लोबल वॉर्मिंग के लिए उत्तरदायी हैं। विश्‍व बैंक की रिपोर्ट कहती है, ‘‘सन् 2020 तक भारत विश्‍व में एक ऐसा देश होगा जिसके हवा, पानी, ज़मीन और वनों पर औद्योगीकरण का सबसे ज्‍यादा दबाव होगा, वहां पर्यावरण बुरी तरह बिगड़ जाएगा, प्राकृतिक संसाधनों की सांसें टूटने लगेंगी और उसके लिए इस विकास की कीमत को चुकाना टेढ़ी खीर होगी’’। बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण का प्रभाव अर्थव्‍यवस्‍था और विकास पर भी पड़ेगा। प्रमुख खाद्यों के उत्‍पादन में कमी आएगी और कुपोषण बढ़ेगा। वर्ष 2050 तक भारत में सूखे के कारण गेहूँ के उत्‍पादन में 50 प्रतिशत तक कमी आने की आशंका है।

आज विश्‍व की 92% प्रतिशत आबादी प्रदूषित हवा में सांस ले रही है। वातावरण में कार्बन-डाइ-ऑक्‍साइड का संकेन्‍द्रण पहले के मुकाबले 30 प्रतिशत ज्‍यादा हुआ है। ग्रीनपीस इण्डिया की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ वायु प्रदूषण से भारत में हर साल 12 लाख जानें चली जाती हैं। भारत के 168 शहरों में हाल ही में किए ग्रीनपीस सर्वे के अनुसार इनमें से एक भी शहर विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन द्वारा निर्धारित वायु गुणवत्ता मानकों पर खरा नहीं उतरा। बोस्‍टन में हाल ही में रिलीज़ स्‍टेट ऑफ ग्‍लोबल एयर 2017 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में ओज़ोन प्रदूषण के कारण होने वाली असामयिक मौतों में भारत प्रथम स्‍थान पर है और इसके कारण दुनियाभर में होने वाली कुल मौतों में से आधी मौतें भारत और चीन में होती हैं।

पानी सिर के पार जा चुका है। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि बच्‍चों के घर में कैद होकर टी.वी.-मोबाइल आदि देखते रहने से उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित हो रहा है। डॉ. मार्क ट्रेम्‍बले, ओटावा के शोध के अनुसार इस सदी के बच्‍चे 1980 के दशक के बच्‍चों के मुकाबले अधिक मोटे, वज़नी और कमज़ोर हैं।

भारतीय दर्शन में संपूर्ण सृष्टि की रचना पंचमहाभू‍तों अर्थात् धरती, जल, अग्नि, आकाश और वायु से मानी गई है। यह विडम्‍बना ही है कि हम जिन पंचतत्त्वों से बने हैं, उन्‍हीं के विनाश पर आमदा हैं। आज की बेलगाम भौतिक ज़िन्‍दगी में हमने न तो पानी को साफ़ छोड़ा है और न ही हवा को शुद्ध। धरती को तो हम वृक्ष काटकर और रसायनों-कृत्रिम उर्वरकों के प्रयोग से लगातार बांझ बना ही रहे हैं। हम भूल गए हैं कि खेती और पशुपालन द्वारा ही आदिमानव के खानाबदोश जीवन का अंत हुआ था। आज हम अपने इन्‍हीं पशुमित्रों को अपने स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए बेदर्दी से मार रहे हैं। जीव-जन्‍तुओं की कितनी ही प्रजातियां विलुप्‍त हो चुकी हैं या होने के कगार पर हैं।

सरकारें विभिन्‍न नियम-कानून बनाकर और पर्यावरण दिवस, पृथ्‍वी दिवस आदि आयोजनों द्वारा इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने का प्रयास कर रही है पर समय आ गया है कि हम व्‍यक्तिगत स्‍तर पर पर्यावरण के प्रति अपनी ज़ि‍म्‍मेदारी को समझें। कहीं ऐसा न हो कि टी.वी. और मोबाइल में उलझी हमारी आने वाली पुश्‍तों को तोता, मैना और गिलहरी भी ‘गूगल इमेजेज़’ पर ही देखने को मिलें और गाय पर पाँच पंक्तियाँ लिखने के लिए भी उसे इंटरनेट का सहारा लेना पड़े। गाय माता, बिल्‍ली मौसी और चंदा मामा कहीं किस्‍से-कहानियों का हिस्‍सा बनकर ही न रह जाएं। आइए, अपने आँगन में पक्षियों के लिए पानी का बर्तन रखकर प्रकृति से जुड़ने की शुरुआत करें और उसमें रोज़ नया पानी भरने की ज़ि‍म्‍मेदारी अपने बच्‍चों को सौंपें।  

और अंत में, जैसा कि थियोडोर रोएटके ने एक दफ़ा कहा था, ‘‘सभी फूल अपनी जड़ों की गहराइयों में प्रकाश रखते हैं,’’ तो आइए प्रकृति से जुड़कर उस प्रकाश का साक्षात् करें, उसे आत्‍मसात् करें और अपनी आने वाली पीढ़ि‍यों का भविष्‍य उज्‍ज्‍वल बनाएं।

*विश्‍व पर्यावरण दिवस, 2017 की थीम 'कनेक्टिंग पीपल टू नेचर' पर...

Saturday 6 May 2017

आइसक्रीम, बच्‍चा और समाज

अभी मैं मॉल के आइसक्रीम काउंटर पर पहुंची ही थी कि लगा पीछे से कोई मेरा दुपट्टा खींच रहा है। यह बालसुलभ कोमलता वाले किन्‍हीं नन्‍हें हाथों का स्‍पर्श मालूम होता था। मेरी बेटी, जिसकी आइसक्रीम की ज़िद मुझे शॉपिंग छुड़ाकर आइसक्रीम काउंटर तक खींच लाई थी, आइसक्रीम दिलाए जाने के नाम पर पहले ही बड़े लाड़ से गल‍बहियां डाले मेरी गोद में चहक रही थी, फिर भला इतने हक़ से और कौन मेरा दुपट्टा खींचे जा रहा था? मुड़कर देखा तो पाया कि निकर-टीशर्ट पहने कमोबेश मेरी बिटिया की ही उम्र का एक बच्‍चा मेरा दुपट्टा थामे खड़ा था। मेरे पलटते ही कहने लगा, आंटी आइसक्रीम दिला दो। मैं उसके सीधी बात नो बकवास टाइप लहज़े पर पहले थोड़ा सकपकाई, फिर उसकी मासूमियत पर लाड़ उमड़ आया...मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान। सच, इस तरह बेलाग अपनी बात कहना भी एक कला ही है जो हम बड़े बच्‍चों से सीख सकते हैं।     

मैंने इस उम्‍मीद में चारों तरफ देखा कि कहीं उसके माता-पिता या कोई रिश्‍तेदार नज़र आ जाए पर वहां कोई नहीं था। अपनी बिटिया जितने बच्‍चे का आग्रह ठुकराना, और वो भी उस आइसक्रीम के लिए जिसमें बच्‍चों की जान बसती है, मेरे लिए एक भावनात्‍मक चुनौती था पर यह सोचकर रुक गई कि बच्‍चों के प्रति बढ़ते अपराधों के इस दौर में किसी अनजान बच्‍चे को यूं कुछ खाने की चीज़ दे देना भी तो ठीक नहीं। न मालूम कब आप पर बच्‍चे को बरगलाने का इलज़ाम आ जाए।     

इधर, बच्‍चे ने मुसलसल एक ही रट लगा रखी थी कि आंटी आइसक्रीम दिला दो। बच्‍चे को लेने अभी तक कोई नहीं आया था, इसलिए मैंने उसी से पूछा कि वो मॉल में किसके साथ आया है, उसके मम्‍मी-पापा कहां है पर मेरे हर सवाल के जवाब में उसका एक ही सवाल मिला कि आंटी आइसक्रीम दिलाओगे न? मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्‍या करूं? इस सब के चलते मैं अपनी बिटिया को भी नाराज़ कर बैठी थी। आखिर एक बच्‍चे के सामने उसे टालकर दूसरे बच्‍चे को आइसक्रीम कैसे दिलाती? काउंटर पर सजी रंग-बिरंगी आइसक्रीम देख-देखकर बिटिया का मन बेकाबू हो रहा था और अब वो मुंह फुलाकर काउंटर के दूसरे कोने में जा बैठी थी। उसका एक बांह पर दूसरी बांह चढ़ाए मुंह फेरकर बैठना मेरे लिए शुभ संकेत नहीं था। यह उसकी खास कोपभवन मुद्रा थी।   

दूसरी तरफ, अब मुझे बच्‍चे की भी चिंता होने लगी थी। कभी-कभी बच्‍चे मॉल में माता-पिता का हाथ छुड़ाकर थोड़ा आगे निकल जाते हैं पर ऐसे में अभिभावकों को उन्‍हें खोजने में इतना वक्‍त तो नहीं लगता। थी। करीब 4-5 मिनट से तो वो बच्‍चा मुझसे ही आइसक्रीम की ज़ि‍द किए जा रहा था। कितनी ही बार मेरी बिटिया भी मॉल में ऐसे ही मस्‍ती में आगे-पीछे हुई है पर हर बार चंद सैकण्‍डों में ही वो फिर से हमारे साथ हो ली है। अब तक मेरा मन जो बच्‍चे को आइसक्रीम दिलाने या न दिलाने को लेकर पसोपेश में था, अब उसके अपने माता-पिता के बिछड़ जाने की आशंका से घबराने लगा था। बच्‍चा भी मेरा हर सवाल अनसुना करके बस आइसक्रीम की रट लगाए हुआ था। चेक की टी-शर्ट और निकर में वो किसी धनाढ्य परिवार का नहीं, तो भी ठीक-ठाक परिवार से मालूम होता था। बच्‍चे से उसके बारे में कोई भी जानकारी मिलना व्‍यर्थ था, इसलिए अब मेरे पास एक ही विकल्‍प था कि मॉल की सिक्‍योरिटी के पास जाकर बच्‍चे का हुलिया बताऊं और उसके बारे में एनाउंसमेंट करवाऊं। अचानक मुझे एहसास हुआ कि कहीं दूर से एक जोड़ी आंखें मुझ पर टिकी हुई हैं। मैंने महसूस किया कि एक अधेड़ उम्र का आदमी कनखियों से मुझे, बल्कि इस पूरे घटनाक्रम को देख रहा है। उसकी आंखों में छिपी धूर्तता से अचानक ही जैसे मेरी छठी इन्द्रिय जागृत हो गई और मुझे सारा माजरा समझ आ गया।



मुझसे आइसक्रीम की ज़ि‍द कर रहा बच्‍चा दरअसल इन्‍हीं महाशय के साथ मॉल आया था और संभवत: खुद इन्‍होंने ही मुझे आइसक्रीम काउंटर की ओर जाते देख उसे मेरे पीछे लगाया था। जिस तरह से वह व्‍यक्ति हमारी तरफ नज़रें बचाकर ताक रहा था, साफ़ पता चल रहा था कि वह इस पूरे घटनाक्रम का एक मुख्‍य पात्र है और उस पर भी मेरी सीमित बुद्धि और एक बच्‍ची की मां होने का अनुभव यही कहता है कि एक चार-पांच साल का बच्‍चा इतना तो जागरूक होता ही है कि एक अनजान जगह पर अपने माता-पिता से बिछड़ जाने के संकट का एहसास कर पाए जबकि यह बच्‍चा मेरे बार-बार पूछने पर भी अपने घरवालों के बारे में न बताकर आइसक्रीम की ही रट लगाए जा रहा था यानी वह किसी अपने के आसपास होने को लेकर आश्‍वस्‍त था। जब मैंने उस व्‍‍यक्ति को अर्थपूर्ण तरीके से घूरना शुरू किया तो उसने बच्‍चे को कुछ इशारा किया और बच्‍चा तुरंत उसके पास भाग गया।

मैंने बिटिया को आइसक्रीम दिलाकर अपने फौरी संकट से निज़ात पाई पर मन खट्टा हो गया था। एक तरफ, एक छोटे-से बच्‍चे को आइसक्रीम के लिए तरसाने का अपराधबोध हो रहा था तो दूसरी ओर, उसके साथ आए उस अधेड़ की मानसिकता को लेकर मन में आक्रोश था। अगर बच्‍चा आइसक्रीम के लिए ज़ि‍द कर रहा था और वह उसे वहां से महंगी आइसक्रीम नहीं दिला सकता था तो क्‍या यह बेहतर नहीं होता कि वह उसे मॉल के बाहर से अपेक्षाकृत सस्‍ती आइसक्रीम दिला देता...आखिर पहनावे और हुलिए से वे दोनों ही इतने निर्धन तो नहीं दिखाई देते थे और अगर यह भी मान लिया जाए कि वह भी उसकी जेब से बाहर की बात थी तो क्‍या उसने बच्‍चे को मांगकर खाने का रास्‍ता दिखाया, वह सही था? ऐसा भी नहीं है कि बच्‍चा रो-रोकर आइसक्रीम के लिए आधा हुआ जा रहा हो, वह पूरी तरह संयत लग रहा था। फिर भी उसने एक अबोध बच्‍चे को सही समझाइश देने के बजाय उसे परजीवी बनने का पाठ पढ़ाया। उस अबोध बालक ने तो यही जाना कि कुछ खरीद न पाओ तो मांग लो...यानी जाने-अनजाने उसमें मांगकर खाने के बीज डाल दिए गए थे। आज बच्‍चा छोटा और निर्बल था तो आइसक्रीम न मिलने पर लौट गया पर कल को यह भी तो संभव है कि यही बच्‍चा बड़ा होकर इच्छित वस्‍तु को पाने के लिए आक्रामक होकर हिंसक तरीकों का सहारा लेने लगे क्‍योंकि यह तो इसने जाना ही नहीं कि श्रम से अप्राप्‍य भी प्राप्‍य बनाया जा सकता है।

या फिर किस्‍सा कुछ और ही था...यह भी संभव है कि पूरा मामला बच्‍चे की आइसक्रीम खाने की चाह का न होकर अधेड़ की धन-लोलुपता का हो और बच्‍चे का इस्‍तेमाल सिर्फ एक मोहरे की तरह किया जा रहा हो। यह सोचकर बच्‍चे को आइसक्रीम मांगने भेजा जा रहा हो कि लोग एक अनजान बच्‍चे को मॉल से 100-150 रुपए की आइसक्रीम न भी दिलाएंगे तो उस पर तरस खाकर 10-20 रुपए तो दे ही देंगे और इस प्रकार अधेड़ के अपने कुत्सित इरादे पूरे हो सकेंगे और यहीं सामाज के रूप में हमारी भूमिका भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। जो दान किसी को सम‍र्थ बनाने के बजाय उसका सामर्थ्‍य छीन लें, क्‍या उसे दान कहना उचित है? मैंने तो इस आंखों देखी से यही जाना कि उदार होना अच्‍छी बात पर है पर जिसे आप दान देने जा रहे हैं, उसकी पात्रता जांच लेना भी ज़रूरी है ताकि किसी ऐसे व्‍यक्ति को इसका खामियाज़ा न भुगतना पड़े जो सही मायनों में ज़रूरतमंद हो। शास्‍त्रों में भी कहा गया है, ‘‘लब्धानामपि वित्तानां बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ। अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ’’ अर्थात् वित्तवानों के हाथ से धन का दो तरीकों से दुरुपयोग होता है: कुपात्र को दान देकर, और सत्पात्र को न देकर।

Tuesday 2 May 2017

चिंपी स्‍कूल में


मई का महीना था। नंदनवन गर्मी से झुलस रहा था। थोड़ी राहत पाने की गरज से चिंपी बंदर आम के पेड़ पर जा बैठा। अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि उसकी आँख लग गई। तभी पेड़ के नीचे से फन वैली प्‍ले स्‍कूल की बस गुज़री। चिंपी धप्‍प से बस की छत पर गिर पड़ा। नींद इतनी गहरी थी कि उसे अपने गिरने तक का पता नहीं चला।

बस शहर से बाहर बने शोरूम से नई-नई तैयार होकर निकली थी और नंदनवन के रास्‍ते शहर जा रही था। उसे बच्‍चों को स्‍कूल पहुंचाना था। स्‍वरा सोसाइटी के बाहर लगे बेंच पर अपने पापा के साथ बैठी बस का इंतज़ार कर रही थी। जैसे ही नई बस ने आकर हॉर्न बजाया, उसके पापा उसे गोद में लेकर बस में बैठाने चल दिए। स्‍वरा को अपनी नई रंग-बिरंगी बस बड़ी पसंद आई। इस पर तो एक-दूसरे का हाथ थामे स्‍कूल जाते छोटे-छोटे बच्‍चों का कितना सुंदर चित्र भी बना था। पहले नंबर पर बना गोल-मटोल लड़का तो बिल्‍कुल उसके साथ पढ़ने वाले पूरब जैसा दिखता था। उसे हँसी आ गई। बस रवाना हुई तो उसने पापा को हाथ हिलाकर बाय बोला। कुछ ही देर में सारे बच्‍चे फन वैली पहुंच गए और बच्‍चों के साथ ही स्‍कूल पहुंच गया, बस की छत पर खर्राटे भरता चिंपी बंदर।   

जब चिंपी की आँख खुली तो स्‍कूल में योगा और म्‍यूज़ि‍क क्‍लास के बाद लंच ब्रेक होने वाला था। पहले तो चिंपी खुद को नई जगह पाकर घबरा गया। फिर उसके पेट में चूहे कूदने लगे। वो चुपचाप बस से उतरकर कुछ खाने को खोजने लगा पर यह कोई जंगल तो था नहीं, जो कहीं भी किसी फल का पेड़ मिल जाता। छिपता-छिपाता थोड़ा आगे बढ़ा तो खाने की ज़ोरदार खुशबू उसके नथूनों में भर गई। यह बच्‍चों का डाइनिंग हॉल था। शांति आंटी बच्‍चों के लिए गरमागरम पूड़ि‍यां तलकर एक बड़े बर्तन में रखती जा रही थीं और सोनिया मैडम बच्‍चों की प्‍लेट में खाना लगा रही थीं।


चिंपी ने चारों तरफ़ देखा और पूड़ी उठाने के इरादे से कमरे की खिड़की से हाथ अंदर डाला पर ये क्‍या? स्‍वरा ने चिंपी का हाथ पकड़ लिया और चिल्‍लाई, ‘‘मैम! मैम! देखो कौन हमारा खाना चुरा रहा है?’’ चिंपी की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई। सोनिया मैम भागी-भागी आईं और चिंपी को डांटते हुए पूछा कि वो स्‍कूल में क्‍या कर रहा है? चिंपी ने डरते-डरते सोनिया मैम को सारी बात बताई और बोला, ‘‘मुझे माफ़ कर दो मैम। बहुत ज़ोर से भूख लगी थी इसलिए खाना चुरा रहा था।’’

सोनिया मैम बच्‍चों को बहुत प्‍यार करती थीं। फिर चिंपी भी तो बच्‍चा ही था। उन्‍होंने शांति आंटी से चिंपी के लिए खाना लगाने को कहा। चिंपी ने भरपेट खाना खाया। तब सोनिया मैम ने उसे और सब बच्‍चों को समझाया कि चोरी करना बुरी बात होती है। अगर उसे खाना चाहिए था तो वो उनसे मांग सकता था। चिंपी ने मैम से माफी मांगी और आगे से कभी चोरी न करने का वायदा किया। सोनिया मैम ने चिंपी को प्‍यार किया और नई बस के ड्राइवर अंकल को कहा कि वे चिंपी को फिर से नंदनवन छोड़ आएं। चिंपी ने सोनिया मैम और सभी बच्‍चों को पिकनिक पर नंदनवन आने का न्‍यौता दिया और कूदकर बस की छत पर चढ़ गया।        

Thursday 13 April 2017

नाम में क्‍या रखा है

अपने नाम से मेरा असल वास्‍ता स्‍कूल में दाखिला लेने के बाद ही पड़ा वरना तो उसका इस्‍तेमाल मुझे पुकारने के लिए घर के लोग ही ज़्यादा किया करते थे। उस पर भी, हर हिन्‍दुस्‍तानी बच्‍चे की तरह, मेरे भी लाड़-प्‍यार में पगे अनेकों नाम थे। लेकिन अब घर की चहारदीवारी से बाहर मेरा औपचारिक नाम ही मेरी पहचान बनने जा रहा था।

मेरी क्‍लास में लड़कियों के नाम कुछ यूं थे: नेहा, शिखा, दीपिका वगैरहवगैरह। वर्णों के लिहाज़ से व्‍यवस्थित और अर्थ के लिहाज़ से सार्थक लगने वाले इन नामों के बीच मुझे अपना नाम मीतू कुछ अटपटा-सा लगता था क्‍योंकि नए शि‍क्षक-शिक्षिकाएं और सहपाठी अक्‍सर मुझे नीतू पुकारने लगते थे। छुटपन में मैं इसे उनका कर्णदोष मानती रही पर कुछ बड़ी हुई तो लगने लगा कि हो-न-हो यह मेरे ही नाम का ध्‍वनिदोष है, अन्‍यथा इतने लोग भला सुनने में एक-सी गलती कैसे करते?  

मेरा नाम अजीब ही नहीं, शायद अधूरा भी है, इसका अहसास मुझे तब हुआ जब कुछ शिक्षिकाएं मेरा नाम जानने के बावजूद मुझे मीता बुलाने लगीं। गनीमत यह रही कि मेरा नाम छोटा था, इसलिए लोगों को पुकारने में ज़्यादा समस्‍या नहीं आती थी और एक-आध बार नीतू या मीता पुकारने के बाद वे मुझे मीतू के रूप में मान्‍यता दे देते थे। असल समस्‍या मेरे कुछ बड़े हो जाने के बाद तब आई जब एक दिन मैं एक बुद्धिजीवी से टकरा गई और उन्‍होंने मेरे नाम का अर्थ पूछ डाला। अपनी सीमित बुद्धि से मैंने इसे मीत अर्थात् प्रेमी से जोड़कर उनकी तो शायद तसल्‍ली कर दी पर अब मैं अपने नाम को लेकर और भी ज़्यादा बेचैन हो गई। 


इधर, भाषाओं में दिलचस्‍पी बढ़नी शुरू हो गई थी। हिंदी से लेकर संस्‍कृत और संस्‍कृत से लेकर अंग्रेज़ी तक मेरे पसंदीदा विषय बनते जा रहे थे। कोई भी शब्‍द सुनती तो सबसे पहले दिमाग में उसका संधि-विच्‍छेद आता या फिर मैं उसकी व्‍युत्‍पत्ति को समझने की कोशिश में लग जाती। कोई भी नाम कान में पड़ता तो मन में सबसे पहला विचार उसकी सार्थकता-निरर्थकता का आता। और तब मैंने जाना कि हिंदीभाषी समाज में ऐसे अनेकों नाम बिखरे पड़े हैं जो पुकारे जाने पर अपनी अलग ही छटा बिखेरते हैं। जैसे, मीनाक्षी नाम सुनकर मछली जैसे आकार की सुंदर आंखों वाली लड़की की छवि मन में उभरती है तो तन्‍वी नाम सुनते ही एक सुडौल कन्‍या का अक्‍स मन में उतर जाता है। जहां विक्रम सुनकर मन बरबस ही किसी पराक्रमी व्‍यक्ति की कल्‍पना करने लगता है, वहीं प्रखर नाम से ही किसी ओजस्‍वी-मेधावी व्‍यक्ति का ध्‍यान हो आता है। मैंने अनुभव किया कि शब्‍द भी चित्र बनाते हैं। थोड़ा-बहुत पढ़ना शुरू करने पर यह भी जाना कि किस प्रकार साहित्‍य में पात्रों के नाम उनके चरित्र के अनुरूप रखे जाते हैं। फिर चाहे वो देवकीनंदन खत्री के तिलस्‍मी उपन्‍यास चंद्रकांता की असीम सुंदरी चंद्रकांता हो या घिसट-घिसट कर संसार का प्रथम अनुभव प्राप्‍त करने वाला महादेवी वर्मा का घीसा। इस तरह से नाम की संवेदनशीलता मेरे मन में गहरे समाती गई।

मैंने ठान लिया था कि जो भी हो, अपना नाम बदलकर ही रहूंगी। मैंने मन-ही-मन अनेक सुंदर और सार्थक नामों की सूची बना डाली थी। अब बस उनमें से कोई एक चुनकर पिताजी को बताना था और रिकॉर्ड्स में अपना नाम बदलवाना था। आखिरकार, मैंने एक अदद साहित्यिक लगने वाले नाम का चुनाव किया और पिताजी के सामने अपना प्रस्‍ताव रख दिया। लेकिन मेरी अपेक्षा के बिल्‍कुल उलट उन्‍होंने इसके लिए साफ़ इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि यह सब इतना आसान काम नहीं, इसकी अपनी कानूनी पेचीदगियां हैं। उन्‍होंने मुझे बताया कि कैसे मेरे जन्‍म से पहले ही उन्‍होंने मेरा नाम तय कर लिया था। सोच लिया था कि अगर लड़की हुई तो उसका नाम वे अपनी पहली बेटी यानी मेरी अग्रजा ऋतु से मिलता-जुलता रखेंगे। मेरी हर दलील खाली गई। जब रो-बिसूरकर भी कुछ नहीं हुआ तो मैंने नाम बदलने की ज़ि‍द छोड़ दी। लेकिन अखबारों में दिखने वाले विज्ञापन मैं फलां फलां एतद्द्वारा यह घोषणा करती हूं कि शादी के बाद मुझे फलां फलां नाम से जाना और पुकारा जाए अब भी मेरी आखिरी आस बने हुए थे।


आखिर ईश्‍वर ने मेरी सुन ली। मेरी शादी एक ऐसे परिवार में तय हुई जहां शादी के बाद वधू का नाम बदले जाने की परंपरा थी। लेकिन शादी की दहलीज़ पर खड़ी लड़की (कुछ हद तक शायद लड़का भी) ही बता सकती है कि जीवन के इस नए चरण को लेकर उसका मन कितनी ही आशाओं, आकांक्षाओं और आशंकाओं से घिरा रहता है। इस सबके बीच नाम का सवाल बहुत पीछे छूट ही गया था कि एक दिन पता चला कि ससुराल पक्ष में मेरे नए नाम के लिए विकल्‍पों पर विचार चल रहा है। मुझसे भी मेरी राय और पसंद पूछी गई।

मैंने हर नाम विकल्‍प से खुद को जोड़कर देखा लेकिन हर बार एक अजनबीपन का एहसास हुआ। अचानक ही लगने लगा कि कोई मेरी पहचान में सेंधमारी कर रहा है। जैसे, मैं अपनी पहचान त्‍यागकर किसी और की पहचान उधार ले रही हूं। मीतू नाम भले ही मुझे कम पसंद हो लेकिन यह मेरा अपना था जिसने जन्‍म से लेकर आज तक मुझे मेरे अस्तित्‍व का एहसास करवाया था। मुझे अब तक मिले प्रशस्ति-पत्र, ढेरों लेख जिन पर मेरा नाम अंकित था, अचानक ही मेरी आंखों के आगे तैर गए। मैंने कल्‍पना करने लगी कि अगर मेरे नए नाते-रिश्‍तेदार मुझे किसी और नाम से पुकारेंगे तो क्‍या मैं उनके प्रेम और स्‍नेह में वही ऊष्‍मा महसूस कर पाऊंगी जो मैं आज तक अपने मायके में करती आई हूं और जिसे मैं ससुराल धरोहर के रूप में ले जाना चाहती हूं। मेरा नाम मेरे माता-पिता के प्‍यार की वो अनमोल सौगात थी जो उन्‍होंने मुझे जन्‍म के साथ ही दी थी और उनके दिए हर भौतिक उपहार से बढ़कर आजीवन मेरे साथ रहने वाली थी। अचानक ही मैंने महसूस किया कि अपना अजीब-अधूरा नाम मुझे बहुत प्‍यारा था।



शुक्र है मुझे अपना नाम बनाए या बचाए रखने के लिए कोई ज़द्दोज़हद नहीं करनी पड़ी। मैं खुद को खुशकिस्‍मत ही मानूंगी कि मेरे भावी परिवार ने मेरे निर्णय का पूरा सम्‍मान किया और मेरी खुशी को प्राथमि‍कता देते हुए यही कहा कि नाम में क्‍या रखा है? हालांकि, मैं बहुत अच्‍छी तरह समझ चुकी थी कि नाम में क्‍या रखा है?’

Saturday 1 April 2017

Goodness begets goodness




Soul Curry invites you to share your real life soul-stirring experiences. If you have any such story to share, do send it to us at soulcurry@timesinternet.in and we will publish it for you!
 | Apr 1, 2017, 10.00 AM IST


Flipping through a book of quotations a few days ago, I stumbled upon a quote of Marcus Aurelius, "Do not act as if you were going to live ten thousand years. Death hangs over you. While you live, while it is in your power, be good." I wondered how a common statement can touch somebody's life so personally, as this quotation took me to a trip down memory lane with my grandfather's face and deeds floating before my eyes.



My grandpa worked as a manager at a film theatre in Jaipur and those were the days when cinema was one of the most popular means of recreation for the masses as well as the classes so his profession would give him ample opportunity to meet hotshots from all walks of life. It also included silver screen celebrities who kept flocking to Jaipur, a city that fascinates the tourists from world over, for excursion. I am not able to abstain from mentioning that my grandpa looked so dashing that once a film actress had offered him protagonist role in her film and also promised to cast him as hero in all the films she would sign in future. However, he had refused the proposal as working in film industry was against our conventional family values and more so as he was a family person who could not stay away from his family. The sight of his children playing around was the ultimate delight for his heart; an elixir of life.



However, more than his easy on the eyes outer appearance, he was known for his tender-heartedness. He was a kind hearted man who would often go beyond his means in helping others. He believed that God resides in human beings so they must be respected and taken care of with all the resources one has. He was a great philanthropist and saw living beings as different manifestations of the Almighty and loved them with heart.



He would say that each person has inside some basic decency and goodness. If he listens to it and acts on it, he is giving a great deal of what it is the world needs most. It is not complicated but it takes courage. It takes courage for a person to listen to his own goodness and act on it. He kept reiterating that goodness is the only investment that never fails.



And he proved it.



It was a chilly December morning. My grandparents were all set to go for an outstation trip to attend a family function. It was when they were waiting for their train at the platform that a beggar came to them and asked for some money to have a cup of tea in order to get some respite from biting cold. In tune with his kind nature, my grandpa gave him not only some money but also a woolen cap from his carry bag.



As the train chugged along, he complained of some uneasiness and expressed his wish of taking a nap to my grandmother. After a while my grandmother tried to awaken him for breakfast but was taken aghast to see no movement in him. It, in turn, had awakened her to the harrowing fact that my grandfather had bid adieu for his final journey. He had suffered a life claiming silent heart attack. Not to say this blood curdling experience numbed her. Somehow, she mustered courage and stepped out of the compartment only to see the same beggar, my grandfather had helped, standing at the compartment gate. As the drowning man clutches the straw, she apprised him of the situation.



Completely shocked, he immediately rushed inside the compartment to take stock of the situation and then, to my grandmother's dismay, confirmed her doubts. He consoled her like a family member and told her not to reveal the matter to anybody or there may be some legal tangle. As soon as the train stopped at the next station, he called a friend and arranged to get my grandpa down from the train pretending as if he was not well and sleeping. He also arranged for a taxi for their return journey and accompanied my grandma back home. Rest is so obvious.


No doubt, that person was an angel for us who came to my grandmother's rescue when she found herself in the tightest spot of her life. I always co-relate it with my grandfather's kindness that he showed to all and sundry. It was perhaps destined that he will take his final farewell from us that way only, but all that happened reaffirmed my faith in the fact that it was my grandpa's investment in goodness that my grandmother found a savior on that fateful day. Now, I more firmly believe that goodness is about character and that more than anything else, goodness is about how we treat fellow living beings.



- (By Meetu Mathur Badhwar)

Thursday 14 July 2016

शायद तितलियों के पीछे भाग रही है....






चाँद-सा मुखड़ा, बिखरे बाल
दिलकश सूरत लगती कमाल
दिनभर मचाए खूब धमाल
पर सोते हुए लगती भोलेपन की मिसाल

एक बार जो हो जाए शुरू
तो फिर चुप कहां होती है
चट-पट चट-पट बातें करती
बड़ी मुश्किल से सोती है

मुंदी हुई पलकों के भीतर भी
भाग रहे कंचे इधर-उधर
लगता है कोई सपना देख रही है
शायद तितलियों के पीछे भाग रही है

बीच-बीच में खोलकर आंखें
निंदिया के साथ खेल रही आंख-मिचौली
या फिर मार रही गपशप गिलहरियों से
उसकी नई-नई हमजोली  

कमल की ताज़ी पंखुडी जैसे होंठों पर
आती-जाती ये मीठी मुसकान  
बता रही है कोयल सुना रही है
अभी तुझे कोई मधुर तान

नींदों में तेरा करवट लेते हुए कुनमुनाना
मानो वन मयूरों के साथ बेवजह ही थिरक जाना
फिर अचानक मुझसे यूं लिपट जाना
जैसे स्‍कूल में माँ की याद आ जाना 

नींदों में कभी-कभी ऐसे चहचहाना
ज्‍यूं गौरेयों के साथ सुर सजाना
माथे पर तेरे पसीने की बूंदें जो चुहचुहा जाएं
सैंकड़ों जुगनू इकट्ठे झिलमिला जाएं  

कान में मोती के दो बूंदे यूं डोल रहे
जैसे चांद और सूरज नभ में झूला झूल रहे
काले-काले बालों के बीच ये मांग तेरी उजली
ज्‍यूं रात की पगडण्डी पर तारों की बारात निकली

चेहरे पर ओढ़े आलस की चादर
बड़ी प्‍यारी लगती है सोती हुई यूं बेफिकर
रहे तू हमेशा सलामत और तेरी ये मस्‍ती भरी नींद भी
इससे ज्‍यादा रब से क्‍या मांग सकती हूं मैं कभी

माना समय पर नहीं सोने के लिए तू डांट मुझसे खाती है
कभी-कभी तो इस बात पर मुझसे रूठ भी जाती है
पर नींदों में जब मेरी छाती पर चढ़ आती है
मेरी ममता खुद पर इतराने का मौका पाती है

Monday 20 June 2016


When I was first sent to the jail

Soul Curry invites you to share your real life soul-stirring experiences. If you have any such story to share, do send it to us at soulcurry@timesinternet.in and we will publish it for you!
TNN | 
When I was first sent to the jail (Anna Martin/Getty Images)When I was first sent to the jail (Anna Martin/Getty Images)
I was only twenty one, when I was first sent to the jail! It was my editor, who had asked me to cover a cultural event being organized there for and by the inmates. I was strangely excited at the very idea of visiting a prison, otherwise a prohibited place for a common girl like me, but soon developed cold feet when some of my seniors told me that it was one of the eeriest places one could ever visit. Suddenly, the scenes of the Jodie Foster movie, 'The Silence of The Lambs' started floating before my eyes, wherein she goes to interview an imprisoned ex-psychiatrist and cannibalistic serial killer and inmates scare her with their bizarre behavior. However, I could not cherry pick the assignments so took up the job, though willy-nilly.
It was the city Central Jail, which housed male and female prisoners in clearly demarcated premises. I felt a little relieved to know that the event was scheduled in female inmates' building. Driving towards the place, I was wondering how female convicts would be like; will they look and behave like the commoners or be different from rest of the female population? I was completely clueless, but the very sight of khaki clad and gun wielding police personnel deployed at the towering gates of the prison assured me that it was going to be an altogether different experience.

I got a warm welcome from Deputy Superintendent (Prisons) who, after briefing me about the event, ushered me to the big door that separated the cells of the convicts from her office. I was not allowed to go across until one of my hands was marked with a 'visitor' stamp. On reaching the event hall, I somehow felt as if I was there to attend an all-women family function, though with a dress code as all the women were clad in white cotton saris. The program was about to start, so flurry of activity could be easily experienced. The inmates were busy doing different jobs in such a zealous and harmonious manner that quite perfectly matched with the last minute preparations undertaken by the women folk of a house before a family function. They were working in clutches. One group was giving finishing touches to a magnificent rangoli they had made with chalk and sand, while the other was arranging chairs on the dais and decorating it with flowers. Some elderly women were in command, while the younger ones were carrying out tasks given to them with all enthusiasm and remarkable agility.

I must admit that I got so engrossed in witnessing all this that for a moment, I forgot that I was standing in a jail, a place I was dreading to visit only a short while ago. The program went on very well with all the performers giving brilliant performances. I was astonished to see how, without proper training, they could dance and sing so well. I wished they could participate in some talent hunt programs, showcase their talent, and get the recognition they deserved, but now they had no option but to surrender to their fait accompli and pass their days behind the bars.

On the sidelines of the event, I tried to peep into the lives of the convicts. They had reached jail for different 'sins' and belonged to different backgrounds, but one thing that they shared in common was the longing to meet their near and dear ones, which reflected in their eyes very apparently. They were put in prison allegedly for the crimes like stealing, duping, killing etc. Some of the women told me that they had been victims of somebody's propaganda and were innocent, while many of them confessed to their crimes, narrating the situations that propelled them to commit the sin which, nevertheless, could not be undone now.

I felt worst about the women, who were abandoned by their own people. One young convict told me that her jobless husband had cajoled her into stealing her sister-in-law's (bhabhi's) jewellery, which would guarantee good future of their children, but had isolated her when she got caught red handed committing the theft. Her heart wept to meet her children, but they were never allowed to visit the jail. And then, I witnessed one more bitter truth of the prison life, when I saw some women with their toddlers staying with them in prison. The children were allowed to stay with their mothers, as they were too young to live without their mothers. I was wondering how these children were bereft of a normal life and blissful childhood for the mistakes they had never committed.

I am not sure whether these women inmates were telling the truth or merely cooking up the stories to hide their crimes, but somehow I wanted to take them at their face value. Driving back home, I was carrying along a big lesson of life that a person is a product of his/her circumstances so we should avoid being judgmental about others. I was just praying for their better future, as I had realized that they were not very different from me and my friends, it was the circumstances that were different and making them live a blotted life behind the bars.

-By Meetu Mathur Badhwar